पलायनवादी नीति से न रुकेगा पलायन
-विक्रम बिष्ट
उत्तराखंड के लगभग सत्रह सौ गांव खाली हो गए हैं। लोगों का पलायन जारी है। सरकार चिंतित दिखाई दे रही है, दिखाई देनी भी चाहिए। पलायन रोकने के प्रयासों की बातें हो रही हैं। लेकिन वास्तव में कैसे?
रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव पलायन का मूल कारण रहा है। उत्तराखंड राज्य बनेगा तो मूलभूत सुविधाओं का सुव्यवस्थित ढांचा जल्दी तैयार होगा। रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। स्वाभाविक ही पलायन रुकेगा। निजी उद्यम के अवसर बढ़ेंगे। प्रवासी वापस आकर यहां अपने हुनर और पैसे का सदुपयोग करने में रुचि लेंगे। विशाल बांधों और बाँझ नीतियों को थोपने के बजाय आधुनिक तकनीकि पर्यावरण अनुकूल नदियों का पानी पहाड़ पर पहुंचाने, बिजली बनाने और उपलब्ध संसाधनों के कारखाने स्थापित करने के काम होंगे।
लेकिन शुरुआत ही पलायनवादी नीति से हुई। लोग उत्तराखंड राज्य के लिए लड़े थे। राजनीति ने उत्तरांचल थोप दिया। यह श्रेय और पहचान की राजनीति के लिए सांस्कृतिक इतिहास से पलायन था। देहरादून को अस्थाई राजधानी बनाया गया। यह पलायनवाद की नीति को पुरजोर ढंग से आगे बढ़ाने की घोषणा थी। केवल सत्तारूढ़ भाजपा ही दोषी नहीं है। तमाम सुविधापरस्त नेता, नौकरशाह और व्यवसायी साथ में अपराधी भी पहाड़ पर राजधानी नहीं चाहते हैं। उनको गैरसैण में ठंड लगती है। दो दिन वहां ठहरना मुश्किल है। हास्यास्पद तर्क यह भी है कि बहुत से विधायक बड़ी उम्र के हैं, उनके लिए ठंड पचानी मुश्किल है। इसलिए सरकार ने गये साल में गैरसैंण में विधानसभा का एक सत्र आयोजित करने की रस्म अदायगी भी जरूरी नहीं समझी।
अक्सर कहा जाता है कि अभी जो गांव जनविहीन नहीं हुए हैं, उनमें प्रायः बूढ़े लोग ही रहते हैं। क्या उनको ठंड की तकलीफ नहीं होती है। होती तो होगी, तो सरकार सर्दियों में इन साधनहीन बुजुर्गों के लिए देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी में रहने खाने की व्यवस्था क्यों नहीं करती है? ये वही वृद्धजन हैं जिन्होंने पहाड़ को जिन्दा रखने के लिए अपने सक्रिय जीवन को खपाया है।
आज स्थिति यह है कि पहाड़ में विकास के लिए खर्च होने वाले धन का अधिकांश हिस्सा वैध-अवैध तरीकों से मैदानी शहरों या बेतरतीब पसरते कस्बों में ठिकाने लगाया जा रहा है। गांव ही खाली नहीं हो रहे हैं। कई पहाड़ी शहरों पर भी पलायन की मार पड़ रही है।
नई टिहरी शनिवार को देहरादून चल देती है सरकार। इस शहर के निर्माण पर सरकार ने अरबों रुपए खर्च किए हैं। बहुत लोगों ने दिल खोल खर्च करके मकान बनाए हैं। फिर भी शहर में टिहरी शहर सी रौनक तो दूर कहीं कहीं तो वीरानगी भी दिखती है। ज्यादातर लोगों ने देहरादून जिले में ठिकाने बना लिए हैं। अधिकांश सरकारी अधिकारियों के परिवार राजधानी में क्षेत्र में रहते हैं। शनिवार को साहब लोग नई टिहरी छोड़ चले जाते हैं।
आज द्वितीय शनिवार की छुट्टी है, सो शुक्रवार शाम को ही तापमान में बर्फीली गिरावट के साथ नई टिहरी की आबादी में अस्थाई ही सही कुछ कमी दर्ज की गयी है। सोमवार को इसमें पुनः वृद्धि होगी।
सरकार और नेता वास्तव में पलायन को रोकने के लिए गंभीर हैं तो विधायक पहल करें। अपने-अपने क्षेत्र में अपने-अपने आवास आबाद करें। कार्यालय खोलें। घनसाली के विधायक शक्तिलाल शाह इसकी प्रेरक मिसाल हैं।
नहीं तो उत्तराखंड का हाल यह होगा-
माँ ने सोचा बेटा
अब देश से घर लौटेगा
बेटा लौटा शायद रोजगार
मेरा करता होगा इंतजार
कुछ दिन-महीने भटका इधर-उधर
हो कर निराश इस बार
वह चला गया परदेश