प्रकृति से छल तो नतीजे क्या होंगे
विक्रम बिष्ट
गढ़ निनाद न्यूज़, 22 मई 2020।
महामारियों के पूर्वानुभवों और विशेषज्ञों की सलाह का दो टूक संदेश है कि दुनिया को अब कोरोना से साथ ही जीने के लिए तैयार रहना है। अभी तो सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक कार्य- कर्तव्य कोरोना को भारत में महामारी बनने से रोकना और इसको निष्प्रभावी हद तक पहुंचाने का है। यह हमारी सामाजिक जिम्मेदारी पर ही निर्भर है।
देर-सबेर वैज्ञानिकों को कोरोना का कारगर इलाज मिल जाएगा। ऐसी ही प्रयोगशालाओं से जैसी,कोई कोरोना वायरस की जननी, जनक थी। किसी टोटके,संजीवनी का खामख्वाह भरोसा क्यों पालें। बेशक दवा व्यापारी कंपनियों और उनके पोषक-पालित समूहों की तैयारी तो चल ही रही है।
इस बीच कोरोना से ज्यादा भयावह संकटों, ग्रीन हाउस प्रभाव, नदियों से लेकर महानगरों तक प्रदूषण आदि से निपटने का सरल निष्कपट संदेश प्रकृति दोहरा रही है।सिर्फ इतनी सी बात है कि हम थोड़ा संतोषी, कम विलासी सभ्य मनुष्य बन जांय!
लेकिन क्या हम यह जिम्मेदारियां निभाने को तैयार हैं? बात 32 साल पहले की है उत्तराखंड क्रांति दल ने ऋषिकेश बैठक में वन संरक्षण अधिनियम 1980 के प्रावधानों के खिलाफ आंदोलन करने का निर्णय लिया था। जो विकास और जनता के परंपरागत हकहकूकों में बाधक बन गए थे। दल ने पिथौरागढ़ से उत्तरकाशी जिलों तक हजारों ग्रामीणों के सहयोग से दर्जनों रुकी पड़ी सड़कों के बाधक पेड़ों को काट गिराया था। उस आंदोलन ने उक्रांद को नगरों, कस्बों की सड़कों से निकाल कर ठेठ अंतराल के गांव तक पहुंचा दिया था। वह शिखर की ओर उक्रांद की यात्रा की पहली ठोस पहल थी। लेकिन दल के नेता ज्यादा गहरा,दूरगामी प्रभाव-फलदायी संकल्प भूल गये।
संकल्प था कि ग्रामीणों के संग-सहयोग से काटे गए एक के बदले 100 वृक्ष रोपेगा और पालेगा। यदि इस पर काम हुआ होता तो उत्तराखंड में आज कुछ ज्यादा हरियाली होती। वन-जन का संवेदनशीलता रिश्ता और पुख्ता होता, शोषण व दोहन की प्रवृत्ति पर प्रभावी हो अंकुश होता। उक्रांद की जड़ें गहरी होती। 1994 के आंदोलन का भटकाव और उसके दुष्परिणामों से आज उत्तराखंड संक्रमित नहीं होता। नतीजन उक्रांद की भी वही गति है जो रेत और सीमेंट के विकास बुतों की होती है।
उसके दस-बारह वर्ष बाद। टीएचडीसी के महाप्रबंधक सतीश शर्मा भागीरथी पुरम विश्राम गृह में कंपनी की पर्यावरण संबंधित उपलब्धियां गिना रहे थे। बता रहे थे कि टीएचडीसी ने पँवाली में वृक्षारोपण का शानदार काम किया है। वहां मौजूद जनता के चुने प्रतिनिधि चुपचाप सुनते रहे। रहा नहीं गया सो मैंने पूछा आप कभी पँवाली गये। घास का ढलुआ मैदान है। फिसले तो बचाव में पकड़ने को झड़ी तक नहीं है। जाहिर है उनको इसकी उम्मीद नहीं थी। वहां सोफे पर बैठे एक सज्जन ने बाहर लॉन में कहा आपने बिल्कुल सही कहा। ये लोग तो हमको कुछ समझते ही नहीं है। परिचय दिया डीएफओ डैम …. ।
4 अप्रैल 2003 की टिहरी बांध परियोजना स्तरीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया है ‘कि की नर्सरियों का भ्रमण आयोजित हुआ जहां पौधे एक क्या दो सीजन तक जीवित रहे थे। वास्तव में पुअर परफारमेंस ।
इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि नई टिहरी सड़क से लेकर आवासीय क्षेत्रों तक पूरी तरह वृक्षविहीन है। बड़ी पहल की आवश्यकता है। आप नई टिहरी में बिना विशेष चश्मे के वास्तविकता देख सकते हैं। पता नहीं टिहरी बांध से पर्यावरण क्षति की पूर्ति के लिए ललितपुर झांसी में रोप-उगाये गये वनों की हालत क्या होगी? हमारे भाग्य विधाता बड़ी हो या छोटी कुर्सी पर बैठने वाले भला इन स्थितियों के लिए दोषी कैसे ठहराये जा सकते हैं। वे तो पहले ही जिम्मेदार लोग हैं। महान देशभक्ति पूर्ण कार्यों के लिए अवतरित हुए हैं।