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कविता: बीरू तुम बढ़े चलो, धीरु तुम बढ़े चलो

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पहाड़ से आकर लोग देहरादून बस गए हैं, और फिर गढ़वाली और हिन्दी बोली-भाषा, और रहन-सहन का होता मिलन!
इस पर कवी के मन में आये विचार – कविता के रूप में

बीरू तुम बढ़े चलो,
धीरु तुम बढ़े चलो।

सामने खड़ा पहाड़ हो,
गोर खाते उज्याड़ हो,
तुम अग्नै सरको नहीं,
तुम पिछनै फरको नहीं।

चाहे खतरनाक भ्याल हों,
बणुँ मां बांसदा स्याल हों,
घौर बैण्यूँ की जग्वाल हो,
काका बोडों की घ्याल हो।

कच्ची की पहली धार हो,
माछों कू चटपटु ठुँगार हो,
लड़बडी दाल या झोली हो,
कब्बी डौणी या कच्बोली हो,

बुबा चाहे बब्ड़ांदू रहो,
ब्वै लटुला झम्डांदु रहो,
चॉमिन मोमो खांदा रयां,
भर्ती हूणू कतै नी जयां।

दिन मां सोओ, रात जगे रहो,
वॉट्सएप्प फरैं सुद्दि लगे रहो,
पढ़ै कू कत्तै नाम न हो,
तुम जुगा क्वी काम न हो।

मर टण्गड़ू ही बड़ू रहे,
मेरु चुफ्फा ही खड़ू रहे,
मिं से क्वी अग्नै नी जयां,
क्वी म्यारा पिछ्नै नी ऐयां।

बीरू तुम बढ़े चलो,
धीरु तुम बढ़े चलो।

“ये बीरू और धीरु हम लोग ही हैं”

✒️पीताम्बर की कलम से 🙏


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