रक्षाबंधन विशेष: कविता – “हे नारी”
रक्षा बंधन के शुभ अवसर पर, सभी बालिकाओं, महिलाओं बहनों और माताओं को सप्रेम स-सम्मान समर्पित एक रचना।
“हे नारी”
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माँ के गर्भ में वो पहली सांस,
स्त्रीत्व पूर्ण का पहला अहसास,
जन्म लेते सुखद सपनों संग।
जीवन से पहले जीवन भर देती हो।
हे अजन्मा!
खुशियों से माँ की गोद भर देती हो।
निश्छल हँसी वो बालपन निश्छल,
पग-पग आल्हाद, पल-पल कौतूहल,
नन्हे नन्हे पगों से बड़ी बड़ी खुशियाँ,
पिता के घर आँगन में भर देती हो।
हे बाल्स्वरूपा!
माँ का आँचल तृप्त कर देती हो।
ज्ञान-ध्यान शिक्षा-दीक्षा लेती हो,
सीता सी अग्नि परीक्षा देती हो,
विकृत समाज की गिद्द दृष्टी भी,
लोकलाज से चुप सह लेती हो।
हे तरुणी!
तुम घर की लाज रख लेती हो।
संसकृति की रीत, संस्कारों की बात,
हृदय पाषाण कर भाई सौंपता हाथ,
विदा होती हो खुशियों संग घर से पर,
पिता का आँगन सूना कर देती हो।
हे दुल्हन!
नए पग से नई गृहस्थी जगमग कर देती हो।
कर महर्षि दधीच सी देह दान,
भरकर भ्रूण में फिर से प्राण,
पितृत्व का प्रतिबिंब गढ़ देती हो,
नई पीढ़ी का सृजन कर देती हो।
हे कल्याणी!
फिर एक आँगन में खुशियाँ भर देती हो।
ममता का बड़ा आँचल फैलाकर,
परिवार पर निस्वार्थ वात्सल्य लुटाकर,
ले लेती हो हर अला-बला खुदपर,
हर झोली मातृत्व से भर देती हो।
हे मातृस्वरूपा !
केवल तुम जगत जननी कहलाती हो।
✒️पीताम्बर की कलम से 🙏