समाज कल्याण विभाग की अंधेर नगरी

विक्रम बिष्ट
गढ़ निनाद न्यूज़* 15 अक्टूबर 2020
नई टिहरी। भारतेन्दु हरिश्चंद्र के कालजई नाटक ‘अंधेर नगरी’ का सार यह है कि व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन किए बिना व्यक्ति या पार्टी बदलने से सत्ता का चाल चरित्र नहीं बदलता है। उत्तराखंड के साथ मुश्किल यह है कि यहां नारे और जुमलेबाजी ज्यादा है। विरासत में प्राप्त सरकारी कार्य संस्कृति में कोई रचनात्मक बदलाव नहीं आया है। पुलिस महकमा इसका काफी हद तक अपवाद है। डर है कि इसको भी बुरी हवा न लग जाए
कुछ दिन पहले हम यहां समाज कल्याण विभाग की दशमोत्तर छात्रवृत्ति में कथित घोटाले की चर्चा कर रहे थे। वस्तुतः यह व्यवस्था की लापरवाही एवं तदर्थवाद का नतीजा है। नाम से ही स्पष्ट है कि समाज कल्याण सरकार का सबसे महत्वपूर्ण बहुआयामी और जटिल विभाग है। यह अतिरिक्त सक्रियता, संवेदनशीलता की मांग करता है। लेकिन पहली दृष्टि में ही इसका अपना संगठनात्मक ढांचा बेढ़व लगता है। या कहें कि कुछ निहित स्वार्थों ने इसे लगभग अराजक बना दिया है। बताया जाता है कि राज्य गठन की 20 साल की अवधि में विभाग अपनी चुस्त-दुरुस्त और अवसरानुकूल सेवा नियमावली तक नहीं बना पाया है।
राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में समाज कल्याण विभाग में विकलांग कल्याण, अल्पसंख्यक एवं पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग को जिला स्तर पर विलीन कर दिया गया। योजनाओं की संख्या बढ़कर लगभग साढे चार दर्जन हो गई। लेकिन धरातल पर काम करने वाले हाथों की भारी कमी है। कुछ पदों के कर्मचारी बिना पदोन्नति सेवानिवृत्त हो गए। कुछ मझोले अधिकारियों ने कंगारू छलांग लगाई है। अंधेर नगरी के निरंतर मुटियाते गोवर्धन दास पर शिकंजा कसा जा सकता है। बशर्ते जिम्मेदार लोग मजबूत इच्छाशक्ति दिखाएं।