किसान आंदोलन और उत्तराखंड- 3
*वन व्यवस्था से बढ़ने लगा जनाक्रोश*
*विक्रम बिष्ट*
गढ़ निनाद समाचार* 3 फरवरी 2021
नई टिहरी। उस काल में पशुपालन के बिना खेती किसानी की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। पशुपालन वनों पर निर्भर था। ग्रामीण चारे के साथ ईंधन, भवन निर्माण, कृषि उपकरण सहित अपनी जरूरतों के लिए वनों पर निर्भर थे। वन राज्य की आय का प्रमुख स्रोत थे। राज हित और जनहित के बीच टकराव स्वाभाविक था। अंग्रेजों को रेल रेल मार्गों के निर्माण के लिए लकड़ियों की जरूरत थी। इसकी आपूर्ति के लिए पहाड़ी क्षेत्रों के जंगलों का विनाश शुरू किया गया ।
अंग्रेज शिकारी विल्सन ने 1858 में राजा सुदर्शन शाह से रियासत के वनों के कटान का ठेका ₹6000 वार्षिक पर ले लिया। फिर 1860 में गंगा यमुना तक फैले जंगलों का ठेका भी ₹4000 वार्षिक पर विल्सन को दिया गया। इसके बाद ₹10000 वार्षिक की दर से 20 वर्षों तक अंग्रेज सरकार के पास यह ठेका रहा।
देसी राज्य और ब्रिटिश सरकार के वनों पर कसते शिकंजे के साथ आम जनता के परंपरागत वन अधिकार कम से कमतर होते गए। सिमटते वनों के उद्धार के लिए राजा प्रताप शाह ने नई वन व्यवस्था लागू की। इसके तहत ईंधन, चारा, पशु चरान के अधिकार सीमित कर दिए गए। एक तरफ अनाप-शनाप कर, अवनाधिकारों की क्रमश बेदखली और दूसरी ओर निरंकुश निर्मम तंत्र। नतीजन आक्रोश बढ़ता रहा । कई जगह किसान विरोध पर उतरने लगे। ग्रामीणों और वन कर्मियों के बीच टकराव की घटनाएं बढ़ने लगी
नरेंद्र शाह के शासन के दौरान स्थितियाँ बदतर होने लगी। हमारे पशु कहां चरने जाएंगे? ग्रामीणों के इस सवाल का सरकारी जवाब था ढंगार फेंक दो, आग में घी का काम कर रहा था।
…जारी।