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‘फूलदेई’ प्रकृति के संवर्धन एवं संरक्षण का लोकपर्व है: भरत गिरी गोसाई

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गढ़ निनाद समाचार।

नई टिहरी।

उत्तराखंड को देव भूमि कहा जाता है। इस सुरम्य प्रदेश की खासियत है, यहां की खूबसूरत वादियां, ऊंचे ऊंचे पर्वत, पहाड़े, झीलें, नदियां, शानदार हिमालय दर्शन तथा यहां के प्रत्येक नागरिक त्यौहार प्रेमी होते हैं। विकट परिस्थितियों, जंगली जानवरों का आतंक, देवी आपदाओं से घिरे रहने के बाद भी उत्तराखंड के लोग हर महीने कम से कम एक त्यौहार तो जरूर मना ही लेते हैं। 

यहां के त्योहार किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति से जुड़े रहते हैं। प्रकृति ने प्राकृतिक संसाधनों के रूप में जो उपहार हमें दिये है, उसके प्रति आभार हम लोग लोकपर्वों  तथा त्योहारे मनाकर जताने का प्रयत्न करते हैं। इसी क्रम में चैत माह की सक्रांति यानी फूल सक्रांति के रूप में जो कि चैत मास के प्रथम दिन मनाया जाता है। 

14 मार्च से शुरू होने वाले इस पर्व का समापन 13 अप्रैल (विखौती) को होता है। गढ़वाल में इस लोकपर्व को फूल संग्राद, जौनसार भाबर में गोगा व कुमाऊं में फूलदेई कहा जाता है। हिंदू परंपरा के अनुसार इस दिन से हिंदू नव वर्ष की शुरुआत मानी जाती हैं। यह पर्व वसंत ऋतु का स्वागत का पर्व है। बसंत ऋतु के आगमन पर पूरे धरा पर पियोली, बुरांश, आडू, भिटोरी, सरसों खुबानी तथा पूलम आदि के रंग बिरंगी फूलों के रंगों से लालिमा छा जाती है। प्रकृति संवर्धन एवं संरक्षण का लोक पर्व हैं फूलदेई।  

नये साल का नये ऋतु का नये फूलों का आने का संदेश लाने वाला यह त्यौहार आज पूरे उत्तराखंड के गांवों व कस्बों में बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है। यह एक ऐसा पर्व है, जो याद दिलाता है की प्रकृति के बिना इंसान का कोई अस्तित्व नहीं है। लोक कथा के अनुसार महादेव शिव शीतकालीन में अपनी तपस्या में लीन थे। कई ऋतु परिवर्तन के बाद भी वे तपस्या से जगे नहीं। महादेव को तपस्या से जगाने के लिए मां पार्वती ने एक युक्ति निकाली उन्होंने शिव गणों को पीला वस्त्र पहनने को बोला तथा फ़्योंली के सबसे ज्यादा सुगंधित पीले फूल लाकर शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित करने को कहा। पुराणों के अनुसार फूलों की खुशबू पूरे कैलाश में फैल गई, जिससे शिव की तपस्या टूट गई और महादेव प्रसन्न मन से इस त्यौहार में बच्चों के साथ शामिल हो गये। तब से यह परंपरा चली आ रही है। फूलदेई लोक पर्व का इंतजार बच्चों को कई दिन पहले से रहता है। इस दिन बच्चे थाली में अनेक प्रकार के फूल सजाकर रखते है। बच्चे प्रसन्न मन से घरो की दहेली में फूल डालते हैं।  माना जाता है कि घर के द्वार में फूल डालने से ईश्वर प्रसन्न होते हैं, और घरों में खुशियां आती है।

फूल डालने वाले बच्चों को फुलारे कहा जाता है। फुलारे फूल डालते वक्त लोकगीत गाते हैं

‘फूलदेई, छम्मा देई,

दैणी द्वार, भर भकार,

ये देली स बारंबार नमस्कार’ (यह द्वार फूलों से भरा और मंगलकारी हो, भगवान सबकी रक्षा करे और सबके घरों में अन्न के भंडार कभी खाली न होने दे।) बदले में उन्हें घर की मुखिया द्वारा पैसे, गुड़, चावल तथा असीम प्यार व आशीर्वाद दिया जाता है। इस दिन घरों में उत्तराखंड का लोक  व्यंजन ‘सई’ बनाया जाता है ,जो कि चावल के आटे को दही में गूंथ कर, घी मे भूनकर, चीनी व मेवे डालकर, लोहे की कढ़ाई में बनाए जाता है। जिसे परिवार के सभी लोग बड़े चाव से खाते हैं। इस प्रकार के लोकपर्वों तथा तथा त्योहारों को भविष्य में कायम रखने की आवश्यकता है। समाज के प्रति व्यक्ति को इसके लिए पहल करना चाहिए।


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Govind Pundir

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