नई टिहरी (10) मिनी स्विट्जरलैंड…. **पर्यटकों के लिए आधार शिविर**
विक्रम बिष्ट। टिहरी बांध विरोधी और इसके समानांतर बांध समर्थक आंदोलन का एक बड़ा लाभ यह हुआ कि टीएचडीसी में काफी संख्या में स्थानीय युवाओं को नौकरियां मिल गई।
बांध के समर्थन में यूं तो कई नेता थे लेकिन जमीनी स्तर पर कमान टिहरी परिसर छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष विजय सिंह पंवार के हाथों में थी। स्वाभाविक है कि निगम की नौकरियों में सबसे बड़ा हिस्सा उनके समर्थकों को मिला। आकाश कृशाली, गोपाल चमोली भी काफी युवाओं को टीएसडीसी एवं निर्माण कंपनियों में रोजगार दिलाने में कामयाब रहे। इनके अलावा कई अन्य नेता अपने लोगों को कुछ ना कुछ दिलाने में कामयाब रहे।
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इस बीच टीएचडीसी के एक बड़बोले मैनेजर ने एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज हैदराबाद की अध्ययन रिपोर्ट का हवाला देते हुए दावा किया कि टिहरी बांध विस्थापितों का पुनर्वास देश की अन्य परियोजनाओं के मुकाबले बहुत बढ़िया तरीके से हुआ है।
टिहरी बांध विस्थापितों के पुनर्वास पर प्रति परिवार औसतन तीन लाख 32 हजार रुपये खर्च हुआ है जो अन्यत्र कहीं नहीं हुआ। इतना ही नहीं यह भी दावा किया गया था कि 95 प्रतिशत विस्थापितों का पुनर्वास कर लिया गया है। फिर बहुप्रचारित हनुमंतराव कमेटी का गठन करने की जरूरत क्यों थी?
नई टिहरी के बारे में दावा किया गया कि समुद्रतल से 4500 से 6000 फुट की ऊंचाई पर स्थित यह नगर सुविकसित पर्वतीय पर्यटन केंद्र का आकर्षण स्थल बन गया है। इस आकर्षक रंगीन दस्तावेज में वादा किया गया था कि नगर पैदल भ्रमण का आनंद लेने वालों एवं धार्मिक भावनाओं से प्रेरित दर्शनार्थियों के लिए आधार शिविर की सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी। जारी….।
बहुत से लोगों को तो विश्वास ही नहीं था कि टिहरी बांध बनेगा भी या नहीं , नई टिहरी की तरफ भी लोगों ने ध्यान नहीं दिया।
दरअसल, नई टिहरी की तरफ भी लोगों ने ध्यान नहीं दिया। रोजगार का सपना सरकारी नौकरियों तक सीमित था। अन्यथा पलायन मजबूरी थी। टिहरी शहर सैकड़ों गांवों एवं यात्रा मार्ग बीच स्थित था, इसलिए वहां रौनक रहती थी। असमंजस के बीच बांध परियोजना का सबसे कठिन काम सुरंग निर्माण अपनी गति पर चल रहा था । यह स्थितियां काफी हद तक नई टिहरी की समस्याओं का कारण बनी हैं। जिनको यहां बसना रहना था वही उदासीन थे तो जिनको सिर्फ नौकरी या ठेकेदारी करनी थी वह स्विट्जरलैंड बनाने की क्यों सोचते!
टिहरी बांध के खिलाफ वीरेंद्र दत्त सकलानी अकेले लड़ रहे थे और मीडिया के कुछ लोग। नवंबर 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनी और मेनका गांधी वन एवं पर्यावरण मंत्री । कफर बांध का निर्माण शुरू हो गया था। ठीक वक्त पर चिपको नेता सुंदर लाल बहुगुणा ने बांध विरोधी आंदोलन की कमान संभाली । उनके पहले उपवास को सम्मान देते हुए पर्यावरण मंत्री मेनका गांधी ने बांध निर्माण कार्य रुकवा दिया। 17 दिन काम ठप रहा।
बांध निर्माण और पुनर्वास को लेकर समितियां दर समितियां बनी। केंद्र उत्तर प्रदेश की निर्माण एजेंसी टीएचडीसी में ज्यादा से ज्यादा स्थानीय लोगों को रोजगार मिले यह भी अपनी जगह वाजिब बात थी। बांध के पक्ष में भी आंदोलन हुआ। इन सब के बीच यह सवाल गुम था कि यदि बांध बन ही जाए तो!
उस पर चर्चा कौन करता? बात होती तो नई टिहरी का ख्याल आता। चांठी- डोबरा जैसे पुल के लिए लोगों को आंदोलन और लंबा इंतजार नहीं करना पड़ता । हड़बोंग में वास्तविक हकदारों के वाजिब हकों में कटौती और संसाधनों में अनाप-शनाप बंटवारा नहीं होता और डेढ़ दशक तक बांध और प्रभावितों के नाम पर नौटंकियां चलती रही उनकी जगह अच्छे भविष्य की बुनियाद तैयार की जाती।