रक्षाबंधन का इतिहास और मान्यताएं:
राखी बांधने का शुभ मुहूर्त, भद्रा, राहु काल कब से कब तक
गोविन्द पुंडीर
रक्षाबंधन का पर्व हर साल श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन आता है इसलिए इसे राखी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। हर वर्ष की तरह इस बार भी सावन मास की पूर्णिमा के दिन रक्षाबंधन का त्यौहार मनाया जाएगा। भाई-बहन के प्रेम को समर्पित यह त्योहार हर साल पूरे देश में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
रक्षाबंधन के दिन जहां बहनें अपने भाई की लंबी आयु और सुखी जीवन की कामना के लिए उन्हें रक्षा सूत्र यानी राखी बांधने के अलावा अपने भाई की आरती उतारते हुए माथे पर तिलक लगाती हैं। वहीं भाई भी इस दिन अपनी बहन को जीवन भर साथ देने व उसकी रक्षा करने का वचन देता है।
रक्षाबंधन (2021) पर राखी बांधने का शुभ मुहूर्त
इस साल पूरे दिन भद्रा नहीं होने से शुभ समय में रक्षा सूत्र बांधने और बंधवाने के शुभ मुहूर्त इस प्रकार है-
- सुबह 07.42 बजे से 09.17 बजे तक (चर)
- सुबह 09.18 बजे से 10.52 बजे तक (लाभ)
- सुबह 10.53 बजे से दोप. 12.27 बजे तक (अमृत)
- दोपहर 02.02 बजे से 03.37 बजे तक (शुभ)
- शाम 06.47 बजे से रात्रि 08.12 बजे तक (शुभ)
- रात 08.13 बजे से 09.37 बजे तक (अमृत)
रक्षा बंधन की पूजा विधि
रक्षाबंधन त्यौहार के दौरान शुभ समय पर बहनें एक साफ थाली को लेकर उस पर रोली, अक्षत, चंदन के साथ ही दही, राखी, मिठाई और दीपक घी का रख लें। इसके बाद पूजा की थाली को भगवान को समर्पित करने के बाद भाई को पश्चिम या दक्षिण दिशा की ओर पीठ कर यानि पूर्व या उत्तर की तरफ मुंह कर बैठाएं।
भाई के सिर पर कोई साफ कपड़ा जैसे रुमाल आदि रखने के बाद भाई के माथे पर सबसे पहले तिलक लगाते हुए रोली, अक्षत व चंदन लगाएं। जिसके बाद राखी यानी रक्षा सूत्र बांधकर आरती करें। फिर भाई को मिठाई खिलाने के बाद उसकी लंबी आयू की मंगल कामना करें। फिर अपने माता पिता का आशीर्वाद लें और भाई बहनों के पैर छूकर उन्हें उपहार भेंट करें।
क्या है रक्षाबंधन का इतिहास व मान्यताएं
रक्षाबंधन को लेकर कई प्रकार की मान्यताएं प्रचलित हैं। पौराणिक ग्रंथों इसको लेकर कई कहानियां बताई गई हैं। कहीं-कहीं इसे गुरु-शिष्य परंपरा का प्रतीक माना जाता है।
माना जाता है कि यह त्योहार महाराज दशरथ के हाथों श्रवण कुमार की मृत्यु से भी जुड़ा है। इसलिए मानते हैं कि यह रक्षा सूत्र सबसे पहले गणेश जी को अर्पित करना चाहिए और फिर श्रवण कुमार के नाम से एक राखी अलग निकाल देनी चाहिए। जिसे आप प्राणदायक वृक्षों को भी बांध सकते हैं।
एक अन्य कहानी में द्रौपदी और कृष्ण का जिक्र हैं तो किसी में राजा बलि और माता लक्ष्मी के बारे में बताया गया है। तो कहीं यह भी बताया गया है कि इसकी शुरुआत सतयुग में हुई थी।
सतयुग की बात करें तो कहते हैं जब युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ कर रहे थे उस समय सभा में शिशुपाल भी मौजूद था। शिशुपाल ने भगवान श्रीकृष्ण का अपमान किया तो श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका वध कर दिया। लौटते हुए सुदर्शन चक्र से भगवान की छोटी उंगली थोड़ी कट गई और खून बहने लगा। यह देखकर द्रौपदी ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर श्रीकृष्ण की उंगली पर लपेट दिया।
श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को उसी समय वचन दिया कि वह एक-एक धागे का ऋण चुकाएंगे। इसके बाद जब कौरवों ने द्रौपदी का चीरहरण करने का प्रयास किया तो श्रीकृष्ण ने चीर बढ़ाकर द्रौपदी के चीर की लाज रखी। कहते हैं जिस दिन द्रौपदी ने श्रीकृष्ण की कलाई में साड़ी का पल्लू बांधा था वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था और यहीं से शुरू हो गई बहन द्वारा भाई को रक्षासूत्र बांधने की परंपरा।
महाभारत का युद्ध से रक्षाबंधन का सम्बंध
एक अन्य कथा के अनुसार महाभारत युद्ध के दौरान युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि हे कान्हा, मैं कैसे सभी संकटों से पार पा सकता हूं? मुझे कोई उपाय बताएं। तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि वह अपने सभी सैनिकों को रक्षा सूत्र बांधे। इससे उनकी विजय सुनिश्चित होगी। युधिष्ठिर ने ऐसा ही किया और विजयी बने। यह घटना भी सावन महीने की पूर्णिमा तिथि पर ही घटित हुई मानी जाती है। तब से इस दिन पवित्र रक्षा सूत्र बांधा जाता है। इसलिए सैनिकों को इस दिन राखी बांधी जाती है।
जब विष्णु भगवान पाताल लोक गए
राजा बलि की विनती स्वीकार करके जब भगवान विष्णु उनके साथ पाताल लोक में वास करने चले गए तो मां लक्ष्मी परेशान हो गईं। फिर उन्होंने अपने पति को वापस लाने के लिए लीला रची। गरीब महिला बनकर राजा बलि के सामने पहुंचीं और राजा बलि को राखी बांधी। बलि ने कहा कि मेरे पास तो आपको देने के लिए कुछ भी नहीं हैं, इस पर देवी लक्ष्मी अपने रूप में आ गईं और बोलीं कि आपके पास तो साक्षात भगवान हैं, मुझे वही चाहिए मैं उन्हें ही लेने आई हूं। इस पर बलि ने भगवान विष्णु को माता लक्ष्मी के साथ जाने दिया। जाते समय भगवान विष्णु ने राजा बलि को वरदान दिया कि वह हर साल चार महीने पाताल में ही निवास करेंगे। यह चार महीने चर्तुमास के रूप में जाने जाते हैं। जो देवशयनी एकादशी से लेकर देवउठनी एकादशी तक होते हैं।