दान हमेशा पात्र को ही दें, कुपात्र को नहीं – रसिक महाराज
हरिद्वार। नृसिंह वाटिका आश्रम रायवाला हरिद्वार के परमाध्यक्ष नृसिंह पीठाधीश्वर स्वामी रसिक महाराज ने बताया कि सभी सांसारिक कर्मों में सर्वश्रेष्ठ कर्म दान है । यह मनुष्य ही नहीं, देवों और असुरों सभी के लिए उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने वाला कर्म है। आश्रम में मासिक सत्संग प्रवचन करते हुए उन्होंने कहा कि
तप: परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते
द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे।
सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलियुग में दान को मनुष्य के कल्याण का साधन बताया गया है।
गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुं एक प्रधान।
जेन केन विधि दीन्हें दान करइ कल्यान।
बृहदारण्यकोपनिषद् की एक कथा में इसकी महिमा का उल्लेख मिलता है।
इस सृष्टि में एक समय ऐसा भी आया, जब देवताओं की उन्नति अवरुद्ध हो गई। उधर असुर लोक में भी उन्नति के मार्ग बंद दिखते थे। पृथ्वी पर भी मनुष्यों में आत्मिक और सांसारिक उन्नति का भाव जाता रहा। हर तरफ बस सभी जैसे-तैसे खा-पी कर सो जाते। न धर्म चर्चा, न प्रगति।
तीनों लोकों का हाल जब एक दूसरे ने जाना तो वे मिलकर पितामह प्रजापति ब्रह्मा जी के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे उन्नति के मार्ग सभी लोकों के लिए खुल जाएं। प्रजापति ब्रह्मा ने तीनों को मात्र एक अक्षर का उपदेश दिया। वह अक्षर था ‘द’।
स्वर्ग में भोगों के बाहुल्य से भोग ही देवलोक का सुख माना गया। अत: देवगण कभी वृद्ध ना होकर, सदा इंद्रिय भोग भोगने में लगे रहते हैं। उनकी इस अवस्था पर विचार कर प्रजापति ब्रह्मा जी ने देवताओं को ‘द’ के द्वारा दमन- इंद्रिय दमन का उपदेश दिया। ब्रह्मा के इस उपदेश से देवगण अपने को कृतकृत्य मान उन्हें प्रणाम कर वहां से चले गए। असुर स्वभाव से ही हिंसावृत्ति वाले होते हैं। क्रोध और हिंसा उनका नित्य व्यापार है। इसलिए प्रजापति ने उन्हें इस तरह के कर्म से छुड़ाने के लिए ‘द’ के द्वारा उन्हें जीवमात्र पर दया करने का उपदेश दिया। असुर गण ब्रह्मा जी की इस आज्ञा को शिरोधार्य कर वहां से चले गए।
मनुष्य कर्मयोगी होने के कारण सदा लोभवश कर्म करने और धनोपार्जन में ही लगे रहते हैं। इसलिए प्रजापति ने लोभी मनुष्यों को ‘द’ द्वारा उनके कल्याण के लिए दान करने उपदेश दिया। मनुष्य गण भी प्रजापति की आज्ञा को स्वीकार कर सफल मनोरथ होकर वहां से प्रणाम कर चले गए। अत: मानव को अपने अभ्युदय के लिए दान अवश्य करना चाहिए।
दान के कई नियम शास्त्रों में बताए गए हैं, जिसमें दान के शुभ फल की प्राप्ति के लिए दान कर्ता के बारे में भी वर्णन मिलता है। शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि दान का नाश भी हो सकता है। इसके तीन कारण हो सकते हैं- अश्रद्धा, अपात्रता एवं पश्चाताप। बिना श्रद्धा के जो दिया जाता है, वह व्यर्थ जाता है और राक्षस दान के समान माना जाता है। इसी तरह डांट-डपटकर, कटु वचन बोलकर जो दान दिया जाता है, उसका भी महत्त्व जाता रहता है। इसी तरह यह भी देखना चाहिए कि दानकर्ता और दान प्राप्तकर्ता की पात्रता है या नहीं। दोनों का ही सच्चरित्र, सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ होना शास्त्रों में दान के सुफल हेतु जरूरी माना गया है। आज इस अवसर पर गढ़वाल महन्त के पद से सुशोभित कोटेश्वर महादेव रुद्रप्रयाग के स्वामी शिवानंद गिरी, स्वामी बालक नाथ जी, अपूर्वानंद ब्रह्मचारी एवं बड़ी संख्या में भक्तगण उपस्थित रहे।