बीस साल के उत्तराखंड की पहली परीक्षा
विक्रम बिष्ट
फ्रांस को लेकर एक कहावत विख्यात है कि ‘ क्रांति अपने बच्चों को खा गयी।’ परमाणु सहित तमाम विनाशकारी हथियारों के जखीरों के बीच से कोविड-19 नामक मानवकृत मायावी दानव के भयावह उत्पात के बाद यही निरीह शुभांकाक्षा शेष रह जाती है कि ‘चमत्कारी विकास’ पर यह कहावत कभी चरितार्थ न हो। निरीह इसलिए कि अहंकारी राजनीति,बाजार की आसुरी भूख और हमारी स्वयं की अतिशय उपभोग की बढ़ती प्रवृत्ति आश्वस्त नहीं करती। विश्वभर के हमारे वैज्ञानिकों की सदाशयी क्षमता ही आशा बंधाती है।
दुनिया के कर्णधारों के बयानों, दुनिया के बाजार के बड़े-छोटे खिलाड़ियों की बेसब्री,मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद के चकड़ैत मठाधीशों और आधुनिक संचारी उस्तरों से लैस इन सबके अनुचरों के बानर सुलभ हथबोंग से तो सिर्फ यही निष्कर्ष निकलता है कि कितने ही कोरोना प्रकटें ‘हम तो नहीं सुधरेंगे।’
कुछ दिन पहले जब ट्रम्प साहब के संगी साथी गौरांग महाप्रभु कोरोना का मजाक उड़ा रहे थे, हम स्वभावतः तालियां बजा रहे थे। अपने नव युवा उत्तराखंड में स्वर्णिम उपलब्धियों का आत्ममुग्ध गौरव गान चल रहा था। तभी कोरोना का विघ्न आ पड़ा।
असावधान देश के सावधान केरल प्रदेश पर कोरोना का हमला हुआ तो उस प्रदेश ने सबसे पहले इस महामारी पर काबू पा लिया। बाबजूद कि वहां की शासन प्रणाली भगवान भरोसे नहीं थी। 27 सितंबर 2002 के दैनिक हिंदुस्तान (दिल्ली) में बड़ी खबर छपी थी कि ‘केरल का 2005 तक बेहतरीन चिकित्सा सुविधा मुहैया कराने का लक्ष्य’। खास तरह की बीमारियों के उपचारार्थ अस्पतालों के निर्माण के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतरीन चिकित्सा सुविधाओं के विकास की परियोजना तैयार की गई है। आज 17 साल बाद उत्तराखंड की दशा क्या है? न सिर्फ़ उत्तराखंड बल्कि आजाद भारत पहले नियोजित पहाड़ी शहर नई टिहरी में पिछले कई दिनों तक आम बीमारियों के इलाज के लिए उपयुक्त अस्पताल नहीं था। नई टिहरी में जिला अस्पताल है। कुछ दिनों के लिए इसे कोरोना अस्पताल बना दिया गया। बदले में जगह नहीं थी, इतना बड़ा शहर सरकार ने कई दिनों तक एक डाक्टर के भरोसे छोड़े रखा। वाकी व्यवस्था अस्थाई तौर पर चम्बा शिफ्ट कर दी।
तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमारी यह सुखद स्वर्णिम उपलब्धि है? या बाबाजी की संजीवनी बूटी आलमारी में संभाल रखी है?
बेरोजगारी और इसके कारण पलायन की पीड़ा उत्तराखंड राज्य आंदोलन के मूल कारकों में एक रही है। अब तक सरकारें सबसे ज्यादा इसी मुद्दे पर चिंतित (?)रही है। रिवर्स पलायन की मधुर तान हाल तक खूब सुनाई देती रही है। चाहे कोरोना के आतंक से या रोजगार खोने की वजह से जब लोग घर गांव लौटने लगे हैं तो उनको यहां रोके रखने के उपाय क्या है? कितनी योजनाएं बनी है। नहीं बनी हैं। तो कम से कम कागजों में तो होंगी? इनको जमीन पर उतारने की क्या तैयारियां हैं। ताकि लोग आश्वस्त होकर रुकें?
सरकार यदि घर गांव लौटे आधे लोगों को भी खुशी-खुशी यहीं रह कर जीवन यापन के गरिमापूर्ण अवसर प्रदान करने में सफल होती है तो यह उत्तराखंड के भविष्य के इतिहास का सचमुच स्वर्णाक्षर जड़ित पन्ना होगा।
क्या हम अपनी सरकार से उत्तराखंड की सबसे बड़ी पहली परीक्षा में पास होने की उम्मीद करें?