कॉलम- समाज सेवा और राजनीति: तब और अब
गंगी: संतोष, सुखमय ग्राम्य जीवन
विक्रम बिष्ट
गढ़ निनाद न्यूज़*7 जून 2020
नई टिहरी: भिलंगना पुल से गंगी गांव तक मीलों खड़ी चढ़ाई। अब थकान बढ़ रही थी। गंगी में ढोल-बाजो से जबरदस्त स्वागत हुआ। शब्दों के हेरफेर से अपरिचित किंतु उत्साह से सरोबोर ग्रामीण नारे लगा रहे थे-इंद्रमणि बडोनी अमर रहे।
उत्तराखंड राज्य सरकार के लिए इंद्रमणि बडोनी भले ही पौड़ी के डीएम साहब द्वारा जारी किए गए प्रमाण (कृपा ?) पत्र के अनुसार एक राज्य आंदोलनकारी हों। राज्य आंदोलन के साथ पहाड़ के निष्काम समाज सेवियों का इतिहास यदि कभी लिखा जाएगा तो बड़ोनी का नाम स्वर्ण अक्षरों में दर्ज होने से कौन रोक सकेगा!
लोगों का कुल देवता समोस। यहीं पर स्वागत समारोह हुआ। आत्मीयता से भरपूर। ढोंग-ढकोसलों से दूर।
नौटियाल जी का भाषण समाप्त हुआ। पीछे खड़ा एक युवक गदगद भाव से बोला ‘धन हो रे मेरी सरकार हमारु कनू ख़्याल रखदी।’
जीते जी बड़ोनी जी के अमरत्व के नारे।
गंगी गांव में तब सरकार एक अदद बेसिक स्कूल के रूप में उपस्थित थी।
बिछड़े हुए साथियों को का दल भी पहुंच गया। उनकी सुरक्षित वापसी यात्रा की सबसे सुखद याद है। प्रवक्ता महोदय ने आयोजकों पर आक्रोश जताया। नौटियाल जी ने फटकार लगाई, आप लोगों को किसने तय समय से पहले आगे जाने को ? बहरहाल, धैर्य का अभाव मानव की बड़ी कमजोरियों में एक है।
बडोनी जी 1967 में देवप्रयाग से और डाक्टर शिवानंद नौटियाल 1969 में पौड़ी से निर्दलीय विधायक चुने गए थे। 1969 में और 1977 में दोनों साथ-साथ विधायक रहे थे। दोनों की गढ़वाली संस्कृति की गहरी समझ आज के राजनीतिक समाज और माहौल में अकल्पनीय है।
बडोनी जी के निर्देशन में माधो सिंह भंडारी नृत्य नाटिका ने अपार लोकप्रियता अर्जित की थी। उन्होंने जन सहयोग से कई विद्यालयों की स्थापना की थी। माधो सिंह भंडारी नाटिका मंचन के दौरान जनता द्वारा प्रदत्त राशियों से कई विद्यालयों को विकसित कराया। उनकी अगुवाई में 1956 में गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली में केदार नृत्य की प्रस्तुति सराही गई थी। शिवानंद नौटियाल जी का सृजन संसार व्यापक है। लगभग दो दर्जन पुस्तके लिखी हैं। ‘गढ़वाल के लोक नृत्य गीत’ उनकी चर्चित पुस्तक है।
गंगी में सामूहिक भोज के बाद परंपरागत नृत्य गीतों का आयोजन देर रात तक चला। यात्रियों के लिए समूहों में अलग-अलग घरों में ठहरने की व्यवस्था की गई थी।
आसमान साफ था हमको अपना तंबू गाड़ने का पहली बार अवसर मिला था। गांव से थोड़ी दूर बेसिक स्कूल प्रांगण में हमने इस स्वर्णिम अवसर का सदुपयोग किया। इसे कहते हैं पहाड़ी भुलों का उद्यम (ऊ द्यम नहीं)। पँवाली में जहां इस वाटर प्रूफ टेंट की जरूरत थी, खुले आसमान के नीचे मूसलाधार बारिश में भटकते रहे। यहां गांव घर जैसा है। हम परदेसी हो गए।
गंगी के लोग मेहमानों का आना अपना धन्य भाग मान रहे थे। लेकिन वहां कुछ था, जिसकी वेदना प्रकट नहीं हो रही थी। बड़ोनी जी सहित कई विज्ञ लोगों से जाना, यह गांव अस्तित्व के एक अनूठे संकट से जूझ रहा है।
बीते वर्ष पड़ोसी किशोर सिंह मंद्रवाल ने गंगी चलने को कहा तो सहर्ष तैयार हो गया। मान सिंह रौतेला और राय सिंह के साथ जवाब घुतू से कुछ दूर आगे पहुंचे तो लगा प्राकृतिक गड्ढों में मिट्टी भरकर यहां सड़क बना दी गई है। आगे कुछ और सड़कों पर काम चल रहा था। ये सड़कें कहां जा रही है कुछ पता नहीं। फिर बारिश शुरू हो गई। स्थानीय एक दुकानदार ने पहले ही सचेत कर दिया था कि आपकी गाड़ी छोटी है निकलेगी नहीं। गंगी दर्शन की हसरत रह गयी।