सकारात्मक सोच से ही बदल सकता है फ़ोर्स माइग्रेशन रिवर्स माइग्रेशन में
डॉ० राजीव राणा
गढ़ निनाद सम्पादकीय
आज जब हम अनलॉक पार्ट-1 के महत्वपूर्ण के दौर में पहुँच गए है और लगभग सभी राज्यों में बड़ी संख्या में लोग नौकरी या मजदूर काम छोड़ अपने-अपने घरों में वापस आ चुके है। अब राज्यों एवं राज्य सरकारों में ये कयास लगने शुरू हो गए है की इन कुशल-अकुशल लोगों को अपने राज्यों में कैसे रोका जाये? इस काम में सबसे चुनौतिपूर्ण है इनको रोज़गार उपलब्ध कराया जाना। इसके लिए लगभग सभी राज्यों में कवायद भी शुरू हो चुकी है और बहुत राज्यों में इसके लिए तो प्रयास भी शुरू कर दिए गए है. परन्तु इन प्रवासी और मज़दूरों को अपने ही राज्यों में रोकना तभी सफल होगा जब सरकार की नीति धरातल पर होगी, तथा यह प्रवासी भी सकारात्मक रूप से अपने ही राज्यों में रुकने के लिए प्रेरित होंगे।
मेरे मत से महामारी के इस दौर में उन प्रवासियों के साथ-साथ अपने प्रदेश के बहुत से बेरोज़गार हुए लोगो के बारे में भी सोचना चाहिये। चूकि अगर यह युवा भी आने वाले समय में राज्य से बाहर रोज़गार ढूंढने जाते है तो इससे माइग्रेशन बढ़ेगा, तथा अभी तक जो प्रवासी अपने प्रदेश में लौटे है उनको अपने प्रदेश में रोकना चुनोतीपूर्ण होगा। क्योंकि यह सभी फोर्स्ड माइग्रेशन की हालत में अपने प्रदेश लौटे है। अन्तः यह पूर्णता रिवर्स माइग्रेशन नहीं है। फोर्स्ड माइग्रेशन यानी जबरन प्रवासन से तात्पर्य किसी ऐसे व्यक्ति या समूह से होता है जो अपने घर या गृह क्षेत्र से कुछ कारणों से दूर रहता है, जिसके आजीविका, ग़रीबी, बेरोज़गारी प्रमुख कारण है। कई बार यह फोर्स्ड माइग्रेशन कुछ प्राकृतिक कारण जैसे पर्यावरण या प्राकृतिक आपदाओं के कारण भी होता है, जैसे की इस महामारी में हमें देखने को मिला है। इस फोर्स्ड माइग्रेशन में लौटे प्रवासियों में से अगर हम 20-40 प्रतिशत लोगों को राज्य में रोक पातें हैं तो ये अच्छी उपलब्धि होगी। परन्तु अगर प्रदेश में वापस लौटे 50 प्रतिशत लोगो को रोक पाए तथा स्थानीय युवाओं को पलायन करने से रोक पाए तो यह राज्य के लिए बहुत ही बड़ी उपलब्धि होगी।
क्लस्टर विकसित किये जायें
अकेले सरकार माइग्रेशन की समस्या का समाधान नहीं कर सकती है. माइग्रेशन को रोकने के लिए यह जरूरी है कि युवा वर्ग अपने-आप प्रेरित हो तथा दूसरे के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बन सके. जिससे लोगो में सकारात्मक ऊर्जा का विकास हो तथा वह अपने राज्य में काम करने के लिए प्रेरित हो सके। इस प्रकार यह युवा अपने गांव को एक स्वयं सहायता समूह के रूप प्रस्तुत कर उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ आदर्श समूह (क्लस्टर) के रूप विकसित किया जा सकता है। क्लस्टर बनने से निश्चित ही उत्पादन की लगत में कमी तो आएगी ही तथा बाजार में सामूहिक मांग का भी विस्तार होगा।
उत्पादन क्षेत्र को इस प्रकार विकसित करने की जरुरत है जिसमें एक उद्योग के स्क्रैप (रद्दी माल) का उपयोग अन्य वस्तुओ के उत्पादन में किया सकें. उदाहरण के लिए पोलट्री का स्क्रैप मशरूम तथा मत्यस्य में काफी उपयोगी होता है। इसके लिए नियमित रणनीति एवं सामूहिक गतिविधियों पर बल देना होगा। इस संरचना के सफल संचालन के लिए यह आवश्यक है कि कौन से संसाधन किस व्यवसाय के लिए इनपुट होंगे?
जीरो बजट नेचुरल फ़ार्मिंग (ZBNF) खेती अपनाने की जरूरत
भिन्न-भिन्न जलवायु, खेती एवं सिचाई के हिसाब से फसल का चुनाव होना चाहिए तथा फसल की उपयोगिता के हिसाब से क्लस्टर का विकास होना चाहिए। जिससे बड़ी मात्रा में उत्पादन कर उसकी मार्केटिंग कर बाजार तक पहुंचाया जा सके। कृषि को ज्यादा लाभकारी व्यवसाय बनाए जाने हेतु परंपरागत कृषि को नयी तकनीकी द्वारा उपयोग में लाना होगा। मुख्य रूप से कृषि व्यवसाय तभी लाभकारी होगा जब काम लगत में ज्यादा उत्पादन किया जा सके. इसके लिए अन्य राज्यों द्वारा अपनाये गये सफल मॉडल को लागू किया जा सकता है जैसे हिमाचल द्वारा अपनाई गई नई प्रकार की जीरो बजट नेचुरल फ़ार्मिंग (ZBNF) खेती का तरीका काफी कारगार साबित हुआ है। यह मॉडल कृषि सिचाई की मांग को कम करती है और लागत को कम करने में भी सहायक हुई है।
वास्तव में जीरो बजट प्राकृतिक खेती का आशय खेती का एक तरीके से है जहाँ पौधों को उगाने और कटाई करने की लागत शून्य है। इसका मतलब है कि किसानों को फसलों के स्वस्थ विकास को सुनिश्चित करने के लिए उर्वरकों और कीटनाशकों को खरीदने की आवश्यकता नही होती है।
यह मूल रूप से एक प्राकृतिक कृषि तकनीक है जो रासायनिक पर आधारित उर्वरकों के बजाय जैविक कीटनाशकों का उपयोग करती है। फसल सुरक्षा के लिए किसान केंचुओं, गोबर, मूत्र, पौधों, मानव मल और ऐसे जैविक उर्वरकों का उपयोग करते हैं। यह किसानों के निवेश को कम करने में सहायक सिद्ध हुआ है। हिमाचल एवं अन्य कई राज्यों, जिसमें प्रमुख दक्षिणी राज्यों में यह खेती व्यापक रूप से लोकप्रिय है। इसी तरह पहाड़ी राज्य में विषम परिस्थितियों में भी सहायक सिद्ध हो सकती है जो की उर्वरक की लागत एवं उपयोग में कमी लाने में सक्षम है।
इसी प्रकार से फल, फूल, सब्ज़ी, जड़ी-बूटी, मेडिकल प्लांट आदि की खेती व्यापक तौर पर पारम्परिक कृषि को अपना कर अच्छा स्व:रोज़गार प्राप्त किया जा सकता है। ये उत्पाद अन्य छोटे उद्योग जैसे फ़ूड प्रोसेसिंग, जड़ी-बूटी के व्यापर के लिए फ़ायदेमंद तो होंगे तथा उत्पादन लागत को कम करने में पहाड़ी राज्यों की लिए बहुत जरूरी है ताकि ये लोग कम लागत पर आत्म-निर्भर बन सके।