तीसरा विकल्प या सत्ता में हिस्सेदारी (एक)
विक्रम बिष्ट
गढ़ निनाद समाचार* 16 जनवरी 2021
नई टिहरी। उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस के मुकाबले तीसरे विकल्प की बातें बरसों से उठती रही हैं। लेकिन तमाम कोशिशें धरातल पर उतर नहीं पाई। कारण कई रहे हैं। तीसरे विकल्प की धुरी उत्तराखंड क्रांति दल ही हो सकता था। 1980 के दशक के अंत में और 1994-96 में उक्रांद क्रमशः कांग्रेस और भाजपा के विकल्प के रूप में देखा जाने लगा था। 1989 के आम चुनाव में उत्तराखंड में भाजपा की हैसियत उक्रांद के मुकाबले बहुत कमजोर थी।
विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाला जनता दल और राष्ट्रीय मोर्चा अस्थाई विकल्प था। भाजपा सवर्ण बहुल उत्तराखंड में ओबीसी आरक्षण विरोध के साथ राम मंदिर और उत्तरांचल निर्माण के मुद्दों को जोड़कर 1991 के मध्यावधि चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बन गई। कांग्रेस का संभावित विकल्प माने जाने वाला उक्रांद अपने कुछ नेताओं की नासमझी और अहंकार की वजह से आज इस स्थिति में है कि मीडिया के एक वर्ग में उसकी जगह आम आदमी पार्टी की तीसरे संभावित विकल्प के रूप में चर्चा होने लगी है। केजरीवाल की आप के पास उत्तराखंड में आज तक एक भी ऐसा नेता नहीं है जो प्रदेश तो क्या जिला स्तर पर भी कुछ पहचान रखता हो। जरा उक्रांद से तुलना करें। जिसके पास नेताओं की बड़ी कतार है, बेशक कार्यकर्ता गिनती के हैं। दरअसल तीसरे विकल्प की अवधारणा ही गलत है।….जारी।