किसान आंदोलन और उत्तराखंड-2
*विक्रम बिष्ट*
गढ़ निनाद समाचार* 2 फरवरी 2021
नई टिहरी। टिहरी रियासत की स्थापना आर्थिक दुरावस्था के बीच हुई थी। इसके संस्थापक राजा सुदर्शन शाह के पास युद्ध सहायता के बदले अंग्रेजों को देने के लिए पैसे नहीं थे। इसलिए गढ़वाल राज्य का बड़ा हिस्सा राजा को देना पड़ा था। टिहरी में राजकोष के लिए कृषि,पशुपालन और जंगल आय के प्रमुख स्रोत थे। राज्य बहुत हद तक किसानों पर निर्भर था।
राज्य के आवश्यक खर्च से लेकर राजशाही शौक मौज के लिए किसानों पर नये नये कर थोपे गए थे। एक निर्मम, निरंकुश तंत्र विकसित किया गया , जो किसानों का मानवीय शोषण करता था। राज्य के कुछ कुख्यात कर एक औताली , पुत्रविहीन व्यक्ति की भू सम्पति उसकी मृत्यु के बाद राज्य के स्वामित्व में चली जाती थी। दो मुयाली वारिस विहीन व्यक्ति की भूमि के साथ भी यही होता था। तीन गयाली, अपनी भूमि छोड़कर अन्यत्र बसे व्यक्ति की भूसंपत्ति राज्य की हो जाती थी ।
कर, भूमि राजस्व के साथ कुली उतार, बड़ी
बरदायस, पेण-खेण, पाला बिसाऊ आदि कई कर देय थे। किसान को अपनी उपज का एक तिहाई राजकोष में जमा करना होता था। राजपरिवार के मांगलिक कार्यों, उत्सवों के लिए किसानों से अनाज, दूध घी वसूला जाता था। राज परिवार के स्वामीभक्त अधिकारी अपने लिए अतिरिक्त जबरन वसूली करते थे।
राज्य,जागीरदारों, मुनाफाखोरों का दोहरा तंत्र
राज्य द्वारा स्वामी भक्तों को जागीरें बांटी गयी थीं। जागीरदार और मुआफीदार कुली उतार जैसी शोषक व्यवस्था से मुक्त थे। लेकिन आमजन का शोषण करने की उनको पूरी छूट थी। वे राज्य द्वारा निर्धारित राजस्व से कई गुना ज्यादा वसूली किसानों से करते थे।
सकलाना के मुआफीदारों के शोषण के खिलाफ किसानों ने सन् 1835 में पहली बार जोरदार आवाज उठाई। उसके डेढ़ दशक बाद बद्री सिंह असवाल के नेतृत्व में अठूर के किसानों ने उपज पर एक तिहाई कर देना बंद कर दिया। अंग्रेज कमिश्नर हेनरी रेमजे के हस्तक्षेप के बाद 20 नाली भूमि पर बारह आना राजस्व की बहाली की गई। लेकिन मुआफीदारों का शोषण जारी रहा। शोषण के खिलाफ यत्र तत्र जनता संघर्ष करती रही। मजिस्ट्रेट के अधिकार प्राप्त मुआफीदार लोगों को कठोर दंड देते थे। आखिरकार उनसे मजिस्ट्रेट के अधिकार छीन लिए गए। नतीज़न मुआफिदारों ने राजा के खिलाफ ही विद्रोह कर दिया। उनका तर्क था कि वह जो कर रहे हैं वह उनका अधिकार है।.. जारी ।