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मूर्तिकारिन

मूर्तिकारिन
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कवि : गोलेन्द्र पटेल

(काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र)

गढ़ निनाद समाचार।

राजमंदिरों के महात्माओं

मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ

समय की छेनी-हथौड़ी से

स्वयं को गढ़ रही हूँ

चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!

सूरज को लगा है गरहन

लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं

चारो ओर अंधेरा है

कहर रहे हैं हर शहर

समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव

दीये बुझ रहे हैं तेजी से

मणि निगल रहे हैं साँप

और आम चीख चली –

दिल्ली!

(4)

//ऊख//

(१)

प्रजा को

प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से

रस नहीं रक्त निकलता है साहब

रस तो

हड्डियों को तोड़ने

नसों को निचोड़ने से

प्राप्त होता है

(२)

बार बार कई बार

बंजर को जोतने-कोड़ने से

ज़मीन हो जाती है उर्वर

मिट्टी में धँसी जड़ें

श्रम की गंध सोखती हैं

खेत में

उम्मीदें उपजाती हैं ऊख

(३)

कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान

तब खाँड़ खाती है दुनिया

और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!


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Govind Pundir

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