प्रदेश की GDP को नये ढंग से परिभाषित करने की आवश्यकता- किशोर उपाध्याय
वन मंत्री डॉ हरक सिंह को लिखा पत्र
नई टिहरी। उत्तराखंड सरकार ने विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर पर्यावरण संरक्षण के लिए राज्य योजना में जीडीपी के साथ जीईपी (सकल पर्यावरणीय उत्पाद) को आधार बनाने का महत्वपूर्ण निर्णय लिया है। दरअसल जीईपी आर्थिक विकास का एक पैमाना है। जिसमें जल, जंगल और जमीन के पर्यावरणीय योगदान को रुपये में अनुमानित करके सकल घरेलू उत्पाद में उसकी हिस्सेदारी तय की जाती है।
उत्तराखंड में लंबे समय से हक़ हकूकों की लड़ाई की मुहिम को चला रहे वनाधिकार आंदोलन के प्रणेता और कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने उत्तराखंड के वन मंत्री डॉ हरक सिंह रावत को एक अच्छी शुरुआत के लिए साधुवाद किया है।
किशोर उपाध्याय ने डॉ हरक सिंह रावत को एक पत्र लिखकर EDP को GDP से जोड़ने के लिए और उसका लाभ उत्तराखंडियों को कैसे मिले, पत्र लिखकर कुछ सुझाव दिये। उन्होंने पत्र में क्या लिखा देखिए–
आदरणीय डॉक्टर हरक सिंह रावत जी,
उत्तराखंड के योगदान को आर्थिक रूप से परिभाषित करने के लिए मैं विनम्रतापूर्वक सुझाव देना चाहता हूँ कि प्रदेश की GDP को नये ढंग से परिभाषित करने की आवश्यकता है।
उत्तराखंड का देश की प्राण वायु सुरक्षा, जल सुरक्षा और अन्न सुरक्षा में अभूतपूर्व योगदान है। उत्तराखंड का पानी न हो तो देश की राजधानी और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र प्यासा ही नहीं भूखा भी मर जायेगा।
आप तो प्रदेश की हर परिस्थिति से अवगत हैं, प्रदेश का 72% भू-भाग वनों को समर्पित है और यह कहा जाता है कि राज्य में वन मंत्री, राज्य के मुख्यमंत्री के बराबर ताकतवर होता है।वनों को ही नहीं, उत्तराखंड वन्य प्राणियों, फ़्लोरा और फौना का भी आश्रय स्थल है।
आप के संज्ञान में होगा कि अभी सुप्रीम कोर्ट ने एक समिति गठित की थी, जिसने कहा है कि एक वृक्ष का पर्यावरणीय योगदान प्रति वर्ष लगभग ₹775,000 रुपये का है और आज COVID-19 के महा संकट काल में ऑक्सीजन की कीमत का आकलन करेंगे तो यह दोगुना हो जायेगा। प्राण वायु के बिना 3 मिनट्स में ही आत्मा शरीर को झटक देती है।
मेरा विनम्र सुझाव है कि वन विभाग, हॉर्टिकल्चर विभाग और कृषि विभाग प्रदेश के वृक्षों की रायशुमारी करे और तदनुसार प्रदेश की GDP का पुन: आकलन करे।
मैंने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव जी से राज्य की अवधारणा व योगदान के बारे में भी यही कहा था, जबकि मेरी पुख़्ता जानकारी है कि जन आकांक्षाओं के अलावा उत्तर प्रदेश के तत्कालीन नेतृत्व ने अलग उत्तराखंड राज्य के लिए हामी क्यों भरी थी? उनका मानना था कि ये पर्वतीय जिले उन पर पैरासाइट हैं।जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश को इसलिये अलग प्रान्त नहीं बनाया जा रहा, क्योंकि राज्य के आर्थिक स्रोत खत्म हो जाएंगे।
इसलिये, उत्तराखंड के योगदान को नये सिरे से परिभाषित करना है। और यह उपयुक्त अवसर है, जब इसे किया जा सकता है और यह कार्य देश के अन्य राज्यों, जो वनों से परिपूर्ण हैं, का भी पथ प्रदर्शन करेगा।
वन विभाग के पास मानव संसाधन की कमी नहीं है, वृक्षों की रायशुमारी कर उसे 75000 से गुणा किया जाय, तब राज्य का योगदान देश-दुनिया को पता चलेगा, वह भी आंशिक।अगर, हम अपने इस योगदान का लाभ ले सकें, तो उत्तराखंड विश्व का सबसे सुखी राज्य होगा। 72% भू-भाग जिस राज्य का वन क्षेत्र है, वहाँ के निवासियों को Forest Dweller नहीं माना जा रहा है।
आपसे अपेक्षा करता हूँ कि उत्तराखंड के निवासियों को Forest Dweller घोषित किया जाए और जल, जंगल और जमीं पर उनके पुश्तैनी अधिकार और हक-हकूक बहाल किये जाएं और उन्हें क्षतिपूर्ति के रूप में:-
1. परिवार के एक सदस्य को पक्की सरकारी नौकरी।
2. केंद्र सरकार की सेवाओं में आरक्षण।
3.बिजली पानी व रसोई गैस निशुल्क दी जाय।
4. जड़ी बूटियों पर स्थानीय समुदाय को अधिकार प्रदान दिया जाय।
5. जंगली जानवरों से जनहानि होने पर परिवार के एक सदस्य को पक्की सरकारी नौकरी तथा ₹ 25 लाख क्षति पूर्ति दी जाय।
आशा है कि आप इस सुझाव को स्वीकार करेंगे और विश्व पर्यावरण दिवस को सार्थकता प्रदान करेंगे।।
सादर ।।
आपका,
(किशोर उपाध्याय)पूर्व अध्यक्ष,उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस कमेटी