नई टिहरी (9) * मिनी स्विट्जरलैंड….
विक्रम बिष्ट।
नई टिहरी। बहुत से लोगों को विश्वास नहीं था कि टिहरी बांध बन ही जाएगा। नई टिहरी की तरफ भी लोगों ने ध्यान नहीं दिया। रोजगार का सपना सरकारी नौकरियों तक सीमित था। अन्यथा पलायन मजबूरी थी।
टिहरी शहर सैकड़ों गांवों एवं यात्रा मार्ग बीच स्थित था, इसलिए वहां रौनक रहती थी। असमंजस के बीच बांध परियोजना का सबसे कठिन काम सुरंग निर्माण अपनी गति पर चल रहा था । यह स्थितियां काफी हद तक नई टिहरी की समस्याओं का कारण बनी हैं। जिनको यहां बसना रहना था वही उदासीन थे तो जिनको सिर्फ नौकरी या ठेकेदारी करनी थी वह स्विट्जरलैंड बनाने की क्यों सोचते!
टिहरी बांध के खिलाफ वीरेंद्र दत्त सकलानी अकेले लड़ रहे थे और मीडिया के कुछ लोग। नवंबर 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनी और मेनका गांधी वन एवं पर्यावरण मंत्री। कॉफर बांध का निर्माण शुरू हो गया था। ठीक वक्त पर चिपको नेता सुंदर लाल बहुगुणा ने बांध विरोधी आंदोलन की कमान संभाली । उनके पहले उपवास को सम्मान देते हुए पर्यावरण मंत्री मेनका गांधी ने बांध निर्माण कार्य रुकवा दिया। 17 दिन काम ठप रहा।
बांध निर्माण और पुनर्वास को लेकर समितियां दर समितियां बनी। केंद्र उत्तर प्रदेश की निर्माण एजेंसी टीएचडीसी में ज्यादा से ज्यादा स्थानीय लोगों को रोजगार मिले यह भी अपनी जगह वाजिब बात थी। बांध के पक्ष में भी आंदोलन हुआ। इन सब के बीच यह सवाल गुम था कि यदि बांध बन ही जाए तो!
उस पर चर्चा कौन करता? बात होती तो नई टिहरी का ख्याल आता। चांठी- डोबरा जैसे पुल के लिए लोगों को आंदोलन और लंबा इंतजार नहीं करना पड़ता । हड़बोंग में वास्तविक हकदारों के वाजिब हकों में कटौती और संसाधनों में अनाप-शनाप बंटवारा नहीं होता । और डेढ़ दशक तक बांध और प्रभावितों के नाम पर नौटंकियां चलती रही उनकी जगह अच्छे भविष्य की बुनियाद तैयार की जाती। जारी….