कविता: “रीता गौं” – कवि पीताम्बर शर्मा
🙏 पीताम्बर की कलम से ✒
उत्तराखंड से पलायन पर लिखी कुछ पंक्तियाँ, मेरी अपनी गढ़वाली भाषा में आप सभी को सप्रेम भेंट
बल सुण रै दीदा तेरा सौं,
अब नि रान्दू मीं अपड़ा गौं।
मेरा गौं मां मनिखि नि रयां,
कु पूछलु कि कै मौ का छैयां।
न छुईं न बात न बौणं न घर,
अपड़ी गाणी ख़ुद आफूमा लगयां।।
न घिंडूंडी की फुर न घुघुती की घुर,
न गोर बाखर तैं अब बाघै कि डर।
गूणी बाँदुरु को राज भैर, अर,
छिपड़ा मकड़ों को राज भीतर।।
मेरा गौं मां तुम शौक से जयां,
इखुली पकयां अर इखुली खय्यां ।
बांजा पुड़ीन्न खेती पाती,
राशन पाणी अफु सणी ल्हिजयां।।
न ब्यौ बरात, न बाजों कु साज,
न ख़ुद भटुली, न पैतुलि पराज।
न चुल्ला की रोटी, न लड़बड़ी दाल
हरचिनी पतला, पंगत कू रिवाज।।
अकलाकंठ मां रै ग्यों दीदा,
कैमां बच्याण, कैका धोरा जों।
बल सुण रै दीदा तेरा सों,
अब नि रान्दू मै अपड़ा गों।।