सनातन संस्कृति चिरकाल से ही पर्यावरण रक्षण मानवीय मूल्यों के संपोषण और अन्य के प्रति आत्मवत व्यवहार की पक्षधर रही है- रसिक महाराज
हरिद्वार। कोरोनाकाल में एकांतवास पर चल रहे नृसिंह पीठाधीश्वर स्वामी रसिक महाराज ने वर्चुअल प्रवचन करते हुए कहा कि सेवा औदार्य व पारमार्थिक वृत्तियों में ही जीवन-सौंदर्य समाहित है। जैसे ही अन्तःकरण में अभावग्रसित-साधनहीन के प्रति करुणा व संवेदना के भाव जाग्रत होंगे, उसी समय चेतना में दैवत्त्व आविर्भूत होने लगेगा ! भगवद-अनुग्रह आकांक्षी पारमार्थिक रहें; उदार बनें । सेवा, परमार्थ भगवदीय पथ है जहाँ जीवन सिद्धि है।
सनातन संस्कृति चिरकाल से ही पर्यावरण रक्षण मानवीय मूल्यों के संपोषण और अन्य के प्रति आत्मवत व्यवहार की पक्षधर रही है। इस प्रकार सृष्टि के मूल में सर्वत्र ईश्वर ही है। इसलिए सभी के प्रति एकात्मता और आदर का भाव रखें। सेवा के भावों को अंगीकार करते हुए समाज को अनुकरणीय दिशा दी जा सकती है। मानव समाज में हमेशा सेवाभाव होना अति आवश्यक है। इससे समाज के अंदर फैली कुरीतियां समाप्त होती हैं। सामान्य सेवा कार्यों को भी व्यक्ति यदि जीवन पर्यन्त करता रहे तो उसका अहम् भाव पूरी तरह समाप्त होकर उसके लिए आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर देगा।
एक-दूसरे के प्रति प्रेमभाव से सामाजिक एकता, शांति और भाईचारे का आधार बनता है। सेवा धर्म ही अध्यात्म का प्रतिफल है। परमार्थ पथ पर अग्रसर होने वाले को सेवा धर्म अपनाना होता है। जिसके हृदय में दया, करुणा, प्रेम और उदारता है, वही सच्चा अध्यात्मवादी है। इन सद्गुणों को जीवन क्रम में समाविष्ट करने के लिए सेवा धर्म अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। हमारे यहाँ दान का अत्यधिक महत्व है। छोटे-बड़े संकल्पों से लेकर देवदर्शन तक कोई काम दान के बिना आरंभ नहीं होता। दान पुण्य यह दोनों शब्द एक तरह से पर्यायवाची बन गए हैं। दान में ही पुण्य है और पुण्य तभी होगा जब दान किया जाए। यह मान्यता सैद्धांतिक रूप से ठीक है।
एक बात और है, वह यह कि समाज में कार्य करते समय सुख-दु:ख, मान-अपमान, लाभ-हानि, क्रोध-द्वेष के अनेकों अवसर आएंगे। अनेकानेक कठिनाइयों और प्रतिकूल परिस्थितियों से होकर गुजरना होगा। इन अवसरों पर ही मनुष्य की परख होती है। इसलिए मनोविकारों को जीत कर जैसे-जैसे मनुष्य जनसेवा की ओर बढ़ता है, वैसे ही वैसे समस्त समाज, राष्ट्र और विश्व उसका अपना परिवार बनता चला जाता है। इस प्रकार जनसेवा के मंगलमय मार्ग का अवलंबन करने से स्वार्थ और परमार्थ दोनों की साधना पूरी हो जाती है।