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हिमालय की दुर्दशा-4 : हिमालय का तापमान बढ़ने से प्राणवायु व प्राणी जीवन खतरे में 

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-स्वतंत्र पत्रकार जगत सागर बिष्ट

मानस की विकासवादी सोच व विभिन्न देशों की विस्तारवादी सोच ने हिमालय व विश्व के विभिन्न ग्लेशियरों को खतरा पैदा कर दिया है। विकासवादी सोच ने देशों के अन्दर पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन जैसे मामलों में खतरा पैदा कर दिया है। जिसके चलते हिमालय सहित विश्व के विभिन्न ग्लेशियरों का लगातार तापमान बढ़ने के चलते वे पिघलने लगे हैं। जिससे विश्व के कई देशों को डूबने का खतरा लगातार बना है। 

तापमान बढ़ने से हिमालय व अन्य ग्लेशियर से विश्व के मौसम परिवर्तन के चलते प्राकृतिक आपदाओं में लगातार इजाफा होने लगा है। जिसका बड़ा असर प्राणीजीवन पर देखने को मिल रहा हैं। देशों की विस्तारवादी सोच ने सम्पूर्ण विश्व में युद्ध का भय बनाने के लिए युद्धाभ्यास के नाम पर हजारों टन बारूदों का विस्फोटकों को प्रतिदिन फोड कर पूरे वातावरण को प्रदूषित करने में विश्व की महाशक्तियों में अमेरिका, रूस व चीन शामिल है। 

हिमालय जो एशिया के मौसम चक्र का नियंत्रक, एशिया का जलस्तम्भ, तंत्र की खान  और मानस समूहों  का आश्रय दाता हुआ करता था, वही आज मानस के लिए असुरक्षित हो गया हैै। हिमालय का अपना ही मौसम चक्र  गढबडा गया है। जिस कारण प्राकृतिक आपदा लगातार आने लगी है। इसी साल की बात करे तो बादल फटने की 8 जुलाई की घटना में 41 अमरनाथ यात्रियों को अपनी जान गवानी पडी। 20 अगस्त की हिमाचल की बादल फटनें की घटना में 44 लोगों की जान चली गयी। हिमाचल व उत्तराखंड  विभिन्न बादल फटने की घटनाओं में  कई लोगों की जानमाल का नुकसान हुआ है। पिछले साल के मुकाबले जनवरी से जुलाई तक बादल फटने के 29  मामले रिकार्ड किये गये है।

वर्ष 2021 में 7 फरवरी को गढ़वाल की धौली और ऋषि गंगा में आई बाढ के कारण लगभग 205 लोगों के मारे जाने का अनुमान सरकार ने बताया है। केदरनाथ की आपदा में 2013 में पांच हजार से अधिक तीर्थयात्रियों की सैलाब में मौत हो गयी थी। यह घटना भी केदारनाथ के ऊपर गांधी सरोवर में बादल फटने से हुई थी । इन अप्रत्याषित हिमालई घटनाओं  से भले ही मौसम विज्ञानी  और आपदा  प्रबंधन हैरान परेशान हो हैरत नहीं है। उनका मानना  है कि मानस कारणों से ही प्राकृतिक आपदाओं में इजाफा हो रहा है। पहले भी बाढ , बारिस, भुस्खलन, हिमखण्ड स्खलन, बिजली गिरना जैसी घटना होती थी लेकिन इन घटनाओं में लगतार से तेजी आना यह चिन्ता का बिशय बना है। 

उत्तराखंड के आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केंद्र के निदेशक डॉ पीयूष रौतेला के अनुसार इस साल राज्य में मानसूनी आपदा में 44 लोग मारे गये , 8 लापता और 40 लोग घायल हो गये है। इनमें 18 मृतक, 8 लापता केवल बादल फटनें और बाढ़ के कारण हुऐ है। राज्य में 568 मकान भी आपदा की चपेट में आए है , जिनमें से 38 पूरी तरह जमींदोज हुए है। पशु और खेती की हानि भी बड़े पैमाने में हुई है। सरकारों ने हिमालय क्षेत्र के गांव में रहने वाले ग्रामीणों की जलाने की लकडी व चारे के उपयोग पर बहुत बदनाम किया, कि जंगल ग्रामीणों के चलते समाप्त हो रहे है। लेकिन हकीकत यह थी कि अंग्रेजों व टिहरी में राजशाही के जमाने से 1985 के अन्त तक अंग्रेजों, राजशाही ,नौकरशाहों और ठेकेदारों ने जंगलों का खूब कटान किया और जमकर चांदी लूटी और आरोप  गांव वालों पर लगाये। जिसका प्रभाव यह हुआ की गांवों को उन्ही के जंगलों के अधिकार से दूर कर दिया गया। 

अब ग्रामीणों को जलावन, चारे की कमी के चलते परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। ग्रामीणों द्वारा बनाए गए वन पंचायतों में भी सरकारों का कब्जा हो गया । वन विभाग व स्थानीय वन ठेकेदारों ने जंगलों को छपान के नाम पर काटना शुरू कर दिया । जिससे स्थानीय लोगों में सरकार व वन विभाग के खिलाफ आक्रोश व्याप्त हो गया । 

फिर शुरू हुआ पहाड़ों में चिपको आंदोलन जिसने सरकारे ,वन विभाग व ठेकेदारों की चूलें हिला कर रख दी। सबसे पहले चमोली जिले की गौरा देवी, चण्डी प्रसाद भट्ट व टिहरी से स्व सुन्दरलाल बहुगुणा व स्थानीय संगठनों ने पेडों में चिपक कर वनों को बचाया। यह आंदोलन ऐतिहासिक चिपको आंदोलन के रूप में विश्व स्तर तक विख्यात हुआ। इस आंदोलन ने जहां पहाड़ के जंगलों को तस्करों की कुल्हाड़ी से बचाया वही हिमालय की दुर्दशा पर सोचने के लिए सरकारों को बाध्य किया। 

आगे की रिपोटों पर ध्यान दे तो ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच की रिपोर्ट कहती है कि 2002 से 2021 तक कुल भारत का 19 प्रतिशत वृक्षावरण घटा। रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2010 में भारत का वृक्षावरण 31,3 मिलियन था जो कि भौगोलिक क्षेत्र का 11 प्रतिशत था। सन 2021 में 127 हजार है। मानस की इस विकासवादी सोच ने बडी मात्रा में प्राकृतिक वन खो दिए जो कि 54,6 मी टन कार्बन स्टॉक की क्षति के बराबर है। पूर्व हिमालय जैव विविधता की दृष्टि से विश्व के सम्पन्नतम हॉट स्पॉट्स में शामिल है, वहां हर साल वनावरण घट रहा है। जहां प्राकृतिक आपदा से मानस अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रह है ,वही विस्तारवादी सोच के देश छोटे देशों को अपने में मिलाने के लिए युद्व व युद्ध अभ्यास करने लगे है। जिसमें मिसाईलों , तोप, टेकों से जमकर बरूद विस्पोट कर रहे है। जिससे हिमालय जैसे ग्लेशियरों के अस्तित्व में खतरा ही नहीं पूरा विश्व प्राणी मुक्त करने पर तुल गये है। वर्तमान समय की बात करे तो पूरे विष्व में 11 केन्द्र ऐसे बन गये है जहां से कभी भी परमाणु हमला हो सकता है। ऐसे देशों में यूक्रेन -रूस , चीन-ताइवान , इजरायल -ईरान, आर्मेनिया-अजर बैजन, तुर्की- ग्रीस ,रूस- जर्मनी , नॉर्थ कोरिया -साउथ कोरिया , चीन – ऑस्ट्रेलिया, जापान- चीन,रूस , अमेरिका- रूस,चीन ,कोसोवो -सर्बिया । इन देशों में एक मानस भूल सम्पूर्ण विश्व को खतरे में डाल सकती है। एक परमाणु चूक यानी तीसरा विश्व युद्व। यह युद्व इतना भीषण होगा की आधे घण्टे के अन्दर 9 करोड़ लोग की मौत और बाकी बचे रेडिएशन की चपेट में आ कर तील -तील कर मरेगे। वायुमंडल में प्रदूषण और अंधकार छा जायेगा। ऐसी घटनाओं से पहले विश्व के पर्यावरण प्रेमियों व शुभचिंतकों को एक मंच में आने की जरूरत है। जिससे सकारात्मक प्रयास कर हिमालय की दुर्दशा व धरती को प्रदूषण से बचाया जा सके।


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Govind Pundir

*** संक्षिप्त परिचय / बायोडाटा *** नाम: गोविन्द सिंह पुण्डीर संपादक: गढ़ निनाद न्यूज़ पोर्टल टिहरी। उत्तराखंड शासन से मान्यता प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार। पत्रकारिता अनुभव: सन 1978 से सतत सक्रिय पत्रकारिता। विशेषता: जनसमस्याओं, सामाजिक सरोकारों, संस्कृति एवं विकास संबंधी मुद्दों पर गहन लेखन और रिपोर्टिंग। योगदान: चार दशकों से अधिक समय से प्रिंट व सोशल मीडिया में निरंतर लेखन एवं संपादन वर्तमान कार्य: गढ़ निनाद न्यूज़ पोर्टल के माध्यम से डिजिटल पत्रकारिता को नई दिशा प्रदान करना।

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