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श्रीमद देवीभागवत महापुराण के दौरान भीष्म पितामह की रोचक कथा सुनाई..

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टिहरी गढ़वाल, 20 जून 2024। श्रीमद देवीभागवत महापुराण के विशाल आयोजन के तीसरे दिन, व्यासपीठ से कथा वाचक श्री कुशला ननद सती ने भक्ति और निष्ठा के महत्व पर अपने प्रवचन से श्रद्धालुओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। उन्होंने कहा कि भजन करने से भगवान की प्राप्ति होती है और कलयुग में भगवान की भक्ति में अद्भुत शक्ति है, जो हमें जीवन में सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है।

कथा वाचक श्री कुशला ननद सती ने भजन और कीर्तन के महत्व को विस्तार से समझाते हुए कहा, “जब हम भगवान का नाम सच्चे भाव से लेते हैं और उनके गुणों का कीर्तन करते हैं, तो हमारी आत्मा शुद्ध होती है और हमें मानसिक शांति प्राप्त होती है। भक्ति का मूल तत्व सच्चा भाव और श्रद्धा है।” उन्होंने समझाया कि सच्चे मन से भगवान की आराधना करने से हमारे सारे दुःख दूर होते हैं और हमें ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है।

इसके बाद, उन्होंने भीष्मपितामह की प्रेरणादायक कथा सुनाई। उन्होंने कहा, “भीष्मपितामह, जिनका असली नाम देवव्रत था, महाभारत के महान योद्धा और कुरु वंश के सबसे सम्मानित सदस्य थे। उनके जीवन की कई महत्वपूर्ण घटनाएं उन्हें ‘भीष्म’ बनाती हैं, जिसका अर्थ है ‘प्रतिज्ञा करने वाला’।”

भीष्म पितामह की जन्म कथा

भीष्मपितामह का जन्म राजा शांतनु और गंगा देवी के पुत्र के रूप में हुआ था। उनके माता-पिता के बीच का विवाह असामान्य था, क्योंकि गंगा ने राजा शांतनु से वादा लिया था कि वह कभी भी उसके कार्यों पर प्रश्न नहीं उठाएंगे। गंगा ने अपने सात पुत्रों को नदी में बहा दिया था, लेकिन जब उसने आठवें पुत्र (देवव्रत) को बहाने की कोशिश की, तो राजा शांतनु ने हस्तक्षेप किया। इस पर गंगा ने राजा को छोड़ दिया, लेकिन पुत्र देवव्रत को राजा को सौंप दिया।

शिक्षा और प्रशिक्षण

देवव्रत ने अपनी शिक्षा और प्रशिक्षण ऋषि वशिष्ठ और परशुराम से प्राप्त किया। वे वेदों के ज्ञाता, महान धनुर्धर और युद्ध कला में निपुण थे। उनकी शिक्षा और प्रशिक्षण ने उन्हें एक महान योद्धा और ज्ञानी व्यक्ति बनाया।

भीष्म प्रतिज्ञा

भीष्मपितामह बनने की प्रमुख घटना तब घटित हुई जब राजा शांतनु ने निषाद राज की पुत्री सत्यवती से विवाह करने की इच्छा जताई। सत्यवती के पिता ने शर्त रखी कि सत्यवती के पुत्र ही कुरु वंश के उत्तराधिकारी होंगे। देवव्रत ने अपने पिता के सुख के लिए प्रतिज्ञा की कि वे कभी विवाह नहीं करेंगे और आजीवन ब्रह्मचारी रहेंगे, ताकि सत्यवती के पुत्र ही राजा बन सकें। इस महान प्रतिज्ञा के कारण देवव्रत को “भीष्म” नाम दिया गया।

महान योद्धा और प्रशासक

भीष्मपितामह ने कुरु वंश की सेवा में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। वे एक कुशल प्रशासक और युद्धनीति के महान ज्ञाता थे। उन्होंने हस्तिनापुर को समृद्ध और शक्तिशाली बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका जीवन निष्ठा, त्याग और देशभक्ति की अद्वितीय मिसाल है।

महाभारत युद्ध

महाभारत युद्ध में भीष्मपितामह ने कौरवों का पक्ष लिया, क्योंकि वे उनके वफादार थे। युद्ध के दौरान, वे कौरव सेना के सेनापति बने। उनकी मृत्यु की इच्छा के अनुसार, वे तब तक जीवित रहे जब तक कि उन्होंने युद्ध समाप्त होने के बाद अपने प्राण त्यागने का निर्णय नहीं लिया। अर्जुन ने भीष्म को शिखंडी की आड़ में बाणों से भेदा, जिसके बाद भीष्म बाणों की शैय्या पर लेट गए और युद्ध समाप्त होने तक जीवित रहे। भीष्म पितामह की कहानी महान प्रतिज्ञा, निष्ठा और त्याग की अद्वितीय मिसाल है। उनका जीवन और उनके आदर्श आज भी हमें प्रेरित करते हैं। श्री कुशला ननद सती ने श्रद्धालुओं से आग्रह किया कि वे भीष्मपितामह के जीवन से प्रेरणा लें।


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Govind Pundir

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