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कोरोना संकट: क्या गांव इतना समर्थ है?

कोरोना संकट: क्या गांव इतना समर्थ है?
विक्रम बिष्ट
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विक्रम बिष्ट, गढ़ निनाद न्यूज़ * 21 मई 2020

नई टिहरी। कोरोना संकट के चलते घर गांव लौटे हजारों लोगों की देखभाल का जिम्मा उत्तराखंड सरकार ने ग्राम प्रधानों पर ‘डाला (या टाला)’ है। हमारे प्रधानों के लिए भी यह पूरी तरह अयाचित अनुभव है। जो अनुभवी हैं उनके लिए भी यह अनपेक्षित जिम्मेदारी है। बेशक जो इस चुनौती पर खरे उतरेंगे भविष्य उनका ही होगा। 

राज्य सरकार ने काफी सोच-विचार कर यह निर्णय लिया होगा, यह मानने के अलावा विकल्प नहीं है। लेकिन क्या  हमारी पंचायतें इस अप्रत्याशित जिम्मेदारी को संभालने में असमर्थ हैं? इस सवाल से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं। जबकि यह तात्कालिक समस्या के साथ भावी चुनौती है। प्रदेश सरकार ने इन प्रवासियों की देखभाल के लिए ग्राम प्रधानों को 10-10 हजार रुपये देने की घोषणा की है। इससे गांवों में भ्रम का वातावरण बना है। पंचायत चुनावों की कड़वाहटें अभी खत्म नहीं हुई हैं। राजनीति ने इन कड़वाहटों को दवा-दारू से खूब पोषित किया है। गांव को नहीं राजनीति के लिए इनकी आवश्यकता आगे भी है।

हमारे गांव कभी आत्मनिर्भर रहे होंगे, आज की तरह पूरी तरह सरकार निर्भर तो नहीं ही थे। तब सामुदायिक जीवन का जीवंत आदर्श था। चन्ट-सयाने लोग तभी थे,शोषण भी । उनके सामंती अवशेष चुनाव दर चुनाव वीभत्स रूपों में प्रकट होते रहते हैं। प्रगति के तीन चार दशकों में पंच परमेश्वरों ने सामंती युग से सीधे ठेकेदारी युग में छलांग लगाकर प्रवेश किया है। इसलिए पीड़ादायक समय में सामुदायिक भावना से निपटना कठिन है। जाहिर है ज्यादा से ज्यादा कमाने की आपाधापी में आत्मनिर्भर गांव की कल्पना कैसे की जा सकती है?

उत्तराखंड राज्य आंदोलन वह दौर था, जब उस पर गंभीरता से सोचा जा सकता था। सोचा जाना चाहिए ही था। उससे पहले चिपको आंदोलन के वक्त भी चिपको निजी महत्वाकांक्षाओं और पुरस्कारों की लालसा प्रतिद्वंदिताओं की बलि चढ़ाया गया। राज्य आंदोलन श्रेय हड़पने और घात-प्रतिघात की साजिशों में कुछ ऐसा उलझा की आज तक उलझा ही है।

जो राज्य बना, राजनीति ने उसकी बुनियाद में ढेर सारा नमक मिला मट्ठा तबियत से भर दिया। अभी जिस समस्या से हम परेशान हैं, वह भविष्य में कई गुना बड़ी होने वाली है। बीस साल तक राज्य केंद्रीय सहायता और कर्ज के मौज मजे में अपनी राह तलाशने की बात भूल चुका है। नौकरशाहों के सरकारी तंत्र की फिजूलखर्ची की दौड़ में हम आगे निकल चुके हैं। फिर पंचायत प्रतिनिधि पीछे क्यों रहें? सरकारी योजनाओं के अलावा चुनाव में किए गए निवेश की वापसी का और चारा क्या है? 

समाज सेवा, आदर्श की बातें छोड़ें। जिनको यह वास्तव में भाता है, वह अपना काम चुपचाप करते रहते हैं। व्यवहारिक ठोस नीति पर आयें  बीस साल में जो गंवाया है, आज के बाद नहीं। आने वाले 20 सालों में क्या ठोस करना है, उसका जमीनी खाका तैयार करें। प्रकृति ने हमें भरपूर दिया है। दिमाग भी उर्वरा है। दिशा और संकल्प निर्धारण का समय है। आत्मनिर्भर गांव का जमीनी खाका तो बना लिया जाए। इसके बिना उत्तराखंड की कल्पना डरावनी लगती है। गंगा मैया से सीखें, जो स्वयं की सफाई कर रही है। उसके लिए अपनी पीठ कने से जग हंसाई ही होगी।


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Govind Pundir

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