जमाने की तासीर
कविता
बारिस आती है पर बूंदे कहीं गायब सी है
बचपन है पर बचपन्ना कही नदारद सा है।
मौसम आता है पर उसका एहसास गायब है
कब आता कब जाता है सब कुछ नदारद है।
उछल कूद होती है पर बचपन्न का एहसास नही है
खेलते-कूदते है बच्चे पर खेल कहीं नदारद है।
बचपन है पर बचपन्न की खुशियां कही गायब हैं
खेलने-कूदने की उम्र में जिम्मेदारियां का एहसास है।
उछलकूद की जगह अब ए बी सी डी ने ले ली है
मां-बाप के प्यार की जगह डांट-फटकार ने ले ली है।
साबन आता है पर कुछ सहमे-सहमे रहता है
बच्चे खेलते है पर कुछ अनमने सा रहते है।
लाड प्यार अब लिखाई-पढाई में खो गया
बचपना स्कूल के बैग तले दबकर रह गया।
गिल्ली डंडा, पंाच पत्तरी खेल सब गायब हो गये
क्रिकेटर बनने के चक्कर मे बच्चे कहीं खो गये।
नई तकनीकी ने बच्चों को उलझाकर रख दिया है
कुछ बचपन पढ़ाई और कुछ फोन चट कर गया है।
बचपन आता है पर बचपना कहीं खो सा गया
सौ में से सौ के फेर ने खुशियों को गायब कर दिया।
बच्चे समय से पहले ही उम्रदराज होने लगे
खेलने की उम्र में पढाई की बात करने लगे।
बचपन कब बीता जवानी का पता न चला
जिम्मेदारियों के बोझ तले उम्र का पता न चला।
बचपन गया, जवानी बीती और कब बुढापा आया
सब ऐसे गुजर गये जैसे दिन पूस बीत गया।
वह क्या दिन थे मिटटी में खेले और तालाब मे नहा लिये
खाना मिला तो ठीक नही तो कच्चे फल खा दिये।
न खाने की चिंता न रहने की फिक्र सब करने वाले हैं
अब बचपन से ही भविश्य का एहसास कराने लगे हैं।
मिटटी के खिलौनों में खेलकर क्या खूब हंसते थे
अब अच्छी साइकिल है पर हंसी गायब सी है।
लड़ना-झगड़ना और कुछ पल में दोस्त हो गये
अब तो दोस्त भी एक दूसरे से बहुत दूर हो गये।
बारिस आती है पर बूंदे कहीं गायब सी है
बचपन है पर बचपन्ना कही नदारद सा है।
पीपल लगाओ, प्रदूषण भगाओ।
ऑक्सीजन बढाओ, सुखी जीवन पाओ।
डॉ0 दलीपसिंह,
यादेंः एक सामाजिक आंदोलन
अपने प्रियजनों की याद में एक पीपल अवश्य लगायें