Ad Image

14 सितंबर ‘हिंदी दिवस’ पर विशेष

14 सितंबर ‘हिंदी दिवस’ पर विशेष
Please click to share News

राष्ट्रभाषा हिंदी की दशा एवं दिशा

डॉ सुरेंद्र दत्त सेमल्टी 

अध्यक्ष हिंदी सेवा समिति टिहरी गढ़वाल 

गढ़ निनाद न्यूज़* 14 सितंबर 2020 

किसी भी व्यक्ति के जीवन में मां और मातृभाषा की बहुत बड़ी उपयोगिता होती है। यदि हम अपने देश की बात करें तो जहां हमारी मातृभाषा हिंदी जिसे राष्ट्रभाषा का भी दर्जा मिला है। वह और अनेक जन्म दात्री माताएं सिसक- सिसक कर दिन बिता रही हैं। यद्यपि 14 सितंबर 1949 को हिंदी भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा घोषित की गई थी, लेकिन दुख है इस बात का कि वह अपने उस पद पर आसीन नहीं हो पाई है। जबकि यह सभी जानते हैं कि व्यक्तिगत और राष्ट्रीय उन्नति के लिए अपनी भाषा का विकास जरूरी है, जैसा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने भी कहा है-

 निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल ।

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे ना हिय को शूल।

भारतवर्ष के लिए यह एक विचारणीय बिंदु है कि देश के सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली हिंदी जो हर प्रकार से समृद्ध है, जिसके शब्द समुदाय ज्ञान विज्ञान, दर्शन, धर्म, अर्थ ,सभ्यता- संस्कृति , कला एवं तकनीकी शिक्षा व्यक्त करने की क्षमता से युक्त है, प्राचीन और नवीन शब्दावलियों को भी अपने में समाहित करने की सामर्थ्य रखती है। लिपि वैज्ञानिक, सीखने में सरल और अन्य अनेक गुणों से युक्त है, अपने ही देश में उपेक्षित पड़ी है। आखिर क्यों?

आश्चर्य तो इस बात को लेकर भी होता है कि हिंदी भाषी लोग ही इसे आंख की सी किरकिरी मान रहे हैं। अंग्रेजी भाषा के प्रति बढ़ रहा मोह, पाश्चात्य संस्कृति का आकर्षण, संकीर्ण मानसिकता, उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण के फलस्वरुप पतित- पावनी  गंगा माता की तरह जो हिंदी भाषा है, वह अपनों के ही कारण अधिक आहत है।  जो लोग अंग्रेजी बोलने लिखने में अपनी शान और हिंदी के प्रयोग करने में अपनी तौहीन समझते हैं उनकी अपरिपक्व समझ पर तरस आता है। मेरी दृष्टि में उन पर ” परम गंग को छोड़ पियासों दुरमति कूप खानायो ” की उक्ति चरितार्थ होती है।

अब जो हो चुका है उसे भूलकर आगे के लिए नए अंदाज से सोचना होगा। मानव सोच पर ही उनकी कार्य संस्कृति  निर्धारित होती है।  मात्र हिंदी दिवस के नाम पर कतिपय कार्यक्रमों का आयोजन कर देने भर से वह सपना पूरा नहीं हो सकता जिसकी प्रतीक्षा में कई  दशक बीत चुके हैं। शासन- प्रशासन को अपना  ढुलमुल और ढीलापन रवैया छोड़कर हिंदी भाषा को मातृभाषा ही नहीं राज्य भाषा बनाने और उसका कठोरता से पालन करवाने हेतु नियम बनाने होंगे। क्षेत्र,धर्म, संप्रदाय के आधार पर राजनीतिक रंग ना देकर राष्ट्रीय ध्वज की तरह संपूर्ण देश को एकजुट होकर हिंदी के प्रति अपनी उदात्त स्वीकृति देनी होगी। हिंदी को उपेक्षापूर्ण दृष्टि से देखने और समझने वाले हिंदुस्तानी यह क्यों नहीं स्वीकार करते कि यदि हिंदी में राज्य भाषा और राष्ट्र भाषा की योग्यता ना होती तो भारत के बाहर आए दिन जो इसे सम्मान मिल रहा है, सीखने पढ़ने की होड़ लगी है  ।  इसका कारण क्या है? हां इतना अवश्य है कि हिंदी के साथ-साथ स्वयं अन्य भाषाओं को भी सम्मान की दृष्टि से  देखा जाना चाहिए  कि तिरस्कार की दृष्टि से।  अहिंदी भाषी लोगों को हिंदी की गरिमा को समझ कर उसे अपनाने और राष्ट्रभाषा के सिहासन पर बिठाने का सार्थक प्रयास करना होगा। ऐसा करने से देश में राष्ट्रीय एकता अखंडता और समरसता की धारा प्रवाहित होगी। सरकार के इस ओर किए गए सार्थक प्रयास में सभी संगठनों, जन समुदाय,  भाषा विदों, नीति निर्धारकों को अपना रचनात्मक सहयोग प्रदान कर इस यज्ञ में सहभागी बनना पड़ेगा तभी जाकर पुराना पड़ चुका यह सपना साकार रूप ले पाएगा।


Please click to share News

Govind Pundir

Related News Stories