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तीसरा विकल्प या सत्ता में हिस्सेदारी (दो)

तीसरा विकल्प या सत्ता में हिस्सेदारी (दो)
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विक्रम बिष्ट

गढ़ निनाद समाचार* 18 जनवरी 2021

नई टिहरी। 80 के दशक के उत्तरार्ध में उक्रांद का तेजी से उभार जन संघर्ष की बदौलत हुआ था।उत्तराखंड राज्य निर्माण के साथ जनता की दूसरी समस्याओं के लिए दल ने लगातार ज़ोरदार संघर्ष किया था। वन संरक्षण अधिनियम 1980 के खिलाफ ग्रामीणों को साथ लेकर व्यापक आंदोलन ने उक्रांद को शहरी कस्बाई संगठन से बाहर निकालकर गांव तक पहुंचा दिया था। तब अपने भविष्य को दांव पर लगाकर संघर्ष की कठिन राह अपनाने वाले युवा और छात्र बड़ी संख्या में उक्रांद से जुड़ने लगे थे। वन कानून से ग्रामीणों खासकर महिलाओं को भारी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा था।

बढ़ती ताकत के साथ उक्रांद में आया राम गया राम टाइप के नेताओं का दौर चल पड़ा। समर्पित कार्यकर्ता पीछे धकेले जाने लगे। 

उक्रांद ने सबसे बड़ी गलती  उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति का गठन करके की। भाजपा इससे अलग रही। जनाक्रोश के निशाने पर रही कांग्रेस के नेताओं को अपने बचाव के लिए ठिया मूल गया। इनमें ज्यादातर वे अख़बारी नेता थे जिनको जनता के बीच अपनी पहचान बनाने के लिए यह एक अदद मंच की जरूरत थी। राज्य नहीं तो चुनाव नहीं का नारा दिसंबर 1987 में गठित उत्तराखंड जन परिषद ने दिया था। लेकिन 1996 में चुनाव बहिष्कार का निर्णय मूलतः इन्हीं नेताओं के दिमाग की उपज था। इस तरह कांग्रेस छोड़ने का नाटक करने वाले पैराशूट से टपके नेता उक्रांद को लोकसभा चुनाव के साथ मुख्यधारा से दूर करने में कामयाब रहे।  जारी …


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Govind Pundir

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