डेढ़ सौ सालः फिर वही हाल
 
						विक्रम बिष्ट।
गढ़ निनाद समाचार *17 फरवरी 2021।
नई टिहरी । भाग्य विधाताओं ने विकास की योजना बनाई। योजना पूरी होने पर उत्सव मनाया। थोड़े समय बाद योजना अकाल धाराशायी हो गयी, कई मनुष्यों और असंख्य प्राणियों को लीलती हुई। भाग्य विधाताओं को शोक हुआ। क्या भाग्य विधाताओं को वास्तव में अपनी असफलता पर शोक होता है? शायद न कभी हुआ और ना कभी होगा।
भाग्य विधाता दिल्ली, लखनऊ, देहरादून कहीं भी बैठ कर हमारे भाग्य की पटकथा लिखते हैं। पूरी चतुराई से अपने हिस्से का स्वर्ग हासिल करते हैं, जिसमे उनकी भावी पीढ़ियाँ सुख वैभव के साथ सुरक्षित रह सके। यह सदियों से होता रहा है। वे कभी वास्तव में ग़ुलाम नहीं हुए। सिर्फ, रंग बदलते रहे आये हैं।
लगभग डेढ़ सौ साल पहले अंग्रेजों को रेल की पटरियों के नीचे बिछाने के लिए स्लीपरों की जरूरत थी। फिर हिमालय के जंगलों का शिकार शुरू हुआ। टिहरी, उत्तरकाशी जिलों को छोड़कर आज का उत्तराखण्ड तब अंग्रेजों के शासनाधीन था। सो उसके जंगलों का मालिक अंग्रेज था। टिहरी में अप्रत्यक्ष गुलामी थी। राजा ने पहले अंग्रेज शिकारी विल्सन को जंगल बेचे।
फिर सीधे अंग्रेज सरकार को खासपट्टी़ से लेकर रवांई (यमुना घाटी) तक किसानों ने नई वन व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन किया। रियासत के दीवान ने किसानों के दमन के लिए तब के यूपी (संयुक्त प्रांत अवध और आगरा) के अँग्रेज़ गवर्नर से अनुमति ली। तिलाड़ी का नर संहार हुआ। दरअसल किसानों के आंदोलन से रियासत से कई गुना अधिक नुकसान अंग्रेज सरकार को हो रहा था।
आज के किसान आंदोलन के प्रति सत्ता गठजोड़ के रवैये को इस पृष्ठ भूमि में भी समझा जा सकता है! जारी….
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