*मुद्दा* उत्तराखंड: बुनियादी मुद्दों से भटकाती आप
विक्रम बिष्ट
उत्तराखंड राज्य बनने के दो दशक बाद पहली बार भू- कानून जैसे बुनियादी मुद्दे पर बहस जोर पकड़ रही है। यह सुखद है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ही सही बड़ी संख्या में युवा इस बहस को आगे बढ़ा रहे हैं ।
आश्चर्य नहीं है कि नेता और बड़े राजनीतिक दलों में वैसी हलचल नहीं दिखाई दे रही है।
पृथक पर्वतीय राज्य के निर्माण के उद्देश्य से गठित उत्तराखंड क्रांति दल का यह स्वाभाविक मुद्दा रहा है। उक्रांद मूल निवास और धारा- 371 की मांग को लगातार उठाता रहा आया है । ध्यातव्य है कि वन संरक्षण अधिनियम 1980 के खिलाफ सन 1988 में चलाए गए आंदोलन ने उक्रांद की पैठ ग्रामीण क्षेत्रों में बनाई गयी थी । फरवरी 1988 में शुरू हुए और पूरे साल चले इस आंदोलन में उत्तरकाशी से लेकर पिथौरागढ़ तक हजारों ग्रामीण शामिल हुए थे । वन को लेकर यह जन सहभागिता के लिहाज से चिपको जैसा व्यापक आंदोलन था। फलस्वरूप उक्रांद नवंबर 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस के संभावित विकल्प के तौर पर उभरा था लेकिन बढ़ती लोकप्रियता की मस्ती में दल का शहरी नेतृत्व क्षतिपूर्ति के रूप में 10 गुना अधिक वृक्षारोपण और वन संवर्धन का संकल्प भूल गया। न भूला होता तो रोपित पालित वृक्षों के साथ उक्रांद की जड़ें भी आज मजबूत होतीं । बहरहाल अब युवा पीढ़ी के उक्रांद नेता भी भू-कानून जैसे मुद्दे पर बढ़-चढ़कर मुखर हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इस मुद्दे पर अपनी सरकार की कोशिशों सहित राय सार्वजनिक की है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी भू-कानून को लेकर कुछ आशाएं बढ़ाई हैं । लेकिन मोटे तौर पर भाजपा और कांग्रेस आगामी विधानसभा चुनाव की जोड़-तोड़ में व्यस्त हैं। जाहिर है इन दलों का पूरा गणित जात-पांत, पैसा, शराब पर ही केंद्रित रहेगा । भाजपा के लिए मोदी नाम ही तारणहार है और सत्ता पक्ष के प्रति जनता में नाराजगी कांग्रेस के लिए भाग्य का छींका । इसके ज्यादातर नेता जनता से खास तरीके की दूरी बनाये लगते हैं ।
इस बीच दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मुफ्त की बिजली का लोकलुभावन शिगूफा फेंका है। क्या यह महज वोट उगाहने का सड़क छाप न्यौता है अथवा उत्तराखंड राज्य निर्माण प्रक्रिया के दौरान अकाली दल जैसी साजिश ? जब उत्तराखण्ड राज्य निर्माण की विधाई प्रक्रिया चल रही थी तो पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल एवं अकाली दल ने उधम सिंह नगर को यूपी में रखने के लिए अडंगेबाजी की थी । यानी उत्तराखंड के भावी स्वरूप को लेकर होने वाली बहस को भटकाने की सफल कोशिश की थी।
आज जब उत्तराखंड का युवा मानस अपने भविष्य को लेकर सजग हो रहा है तो उसे मुफ्तखोरी की ओर ललचाने का मतलब क्या हो सकता है ? फिर आम आदमी पार्टी ने जिस तरह उत्तराखंड वासियों की तुलना दुकानों के सामने टुकड़ों के लिए बैठे कुत्तों से की है उसकी मंशा साफ हो जाती है। किसी भी पार्टी के प्रवक्ता के बोल उसकी आधिकारिक राय होती है।
सवाल यह है कि उत्तराखंड में आप के नेता भी यही मानकर विश्वास रखते हैं कि वे केजरीवाल की आप के सहारे उत्तराखंडियों को इस योनि के अभिशाप से मुक्त कराएंगे।