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बुधू:

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श्रद्धांजलि के ग्राहक 

राजनीति में सहानुभूति और श्रद्धांजलि का बड़ा महत्व है। चुनाव के दौर में चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाता है। 

आमतौर पर श्रद्धांजलि हुतात्मा को दी जाती है। राजनीति में सरकारें आया जाया करती हैं। नेता अक्सर जनता को बेवकूफ बनाते रहते हैं जो जितना अधिक बेवकूफ बना सकता है वह उतना सफल हो जाता है।

 एक मोड़ पर नेता खुद चकरा जाते हैं जब अच्छा काम करते हैं ,लोग उनके अच्छे कार्यों को ही चुनाव में श्रद्धांजलि देते हैं। फूलों के हार की बजाय असली पक्की हार। काम करने वाला नेता सोचता होगा जितना जोर काम करने में लगाया इसकी बजाय बेवकूफ बनाने में लगाया  होता हाय यह हार न देखनी पड़ती । वैसे काम कम हल्ला ज्यादा करना राजनीति का शुक्ल पक्ष है । लेकिन राजनीति में श्रद्धांजलि और सहानुभूति अफसोसनाक भी होती है।ठीक-ठाक चलती सरकार को चलता कर दिया जाता है। न सरकार का मुखिया न जनता समझ पाती है कि यह कार्य सहानुभूति का है या अफसोस का। विरोधी जरूर खुश होकर श्रद्धांजलि दे देते हैं। श्रद्धांजलि देने के लिए ऐसे शुभअवसर अपने उत्तराखंड में कुछ अधिक आते हैं। देवताओं को यह शायद खूब पसंद है। 

परिवर्तन विकास की सफलता के लिए जरूरी है। इसलिए राजनीति में श्रद्धांजलि देने से अधिक सरदांजलि मांगने की परंपरा चल निकली है। पहले स्वर्गारोहण करने वाले नेता के परिजन को चुनाव मैदान में उतारकर सहानुभूति स्वरूप श्रद्धांजलि प्राप्त की जाती थी। अब जीते जी नेता बस आखरी बार श्रद्धांजलि मांग रहे हैं। इस उत्तम प्रकृति के ग्राहक अब अन्य क्षेत्र में भी आने लगे हैं। यह राजनीति का शुक्ल पक्ष है। शुभकामनाएं। 

आपका बुधू।


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Govind Pundir

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