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कविता: “हर रोज” – पीताम्बर शर्मा

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हर रोज सुबह मेरे आँगन में।

दूर पूरब से उजाला होता है,
फैला ओंस का दुशाला होता है,
मुंडेर पे चिड़िया चहचहाती है ,
सोई धरती उर्जित हो जाती है।

हर रोज दोपहर मेरे बसेरे पर।

घर आँगन बुहारे जाते हैं,
पेड़ पौधे फुहारें पाते हैं,
संभालते हैं सुख-दु:ख अपने,
कुछ आपस में बांटे जाते हैं।

हर शाम जब सूरज ढलता है।

उड़ते पंछी अपने ठौर की ओर,
उड़ती गोधूलि रस्तों के छोर,
मस्त समां बोझिल होने लगता है,
जब सूरज ओझल होने लगता है।

हर शाम मेरे मन्दिर में।

नित देवों का वन्दन होता है,
शंख-घंटी का गुंजन होता है,
गूंजती आरती की स्वरलहरी,
और माथे पे चंदन होता है।

हर रोज यारों की महफिल में।

कुछ किस्से कहानियाँ बुनते हैं,
सबकी खैर-खबर भी सुनते हैं,
कहकहे चाय की चुस्की संग,
और कुछ नई राह भी चुनते हैं।

हर रोज रात मेरी नींदों में।

कोई मेरा माथा सहलाता है,
दिन भर की थकन मिटाता है,
सुनहरे सपने बुन जाता है और ,
नई सुबह की उम्मीद जगाता है।

🙏पीताम्बर की कलम से ✒


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