मुद्दा: बड़ी चुनौती परिसीमन की
विक्रम बिष्ट
कुछ विलंब से ही सही, त्रिवेंद्र रावत सरकार ने सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में आरक्षण व्यवस्था समाप्त करने का निर्णय लिया है। बेहतर होता सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद उत्तराखंड सरकार अपनी ओर से इस मामले में विवाद का पटाक्षेप कर देती। बहरहाल उम्मीद है कि उत्तराखंड की आम जनता और खासकर सरकारी कर्मी अब राहत महसूस करेंगे। यह किसी की जीत और हार का मामला कतई नहीं है।
यह कटु सच्चाई है कि हमारे समाज के बहुत बड़े हिस्से ने सदियों से जातिगत व्यवस्था की मानसिक पीड़ा झेली है। जाति ईश्वर प्रदत वरदान और अभिशाप नहीं है। यह मनुष्य के भीतर दूसरों पर शासन करने,अपनी मनचाही और शोषण की आसुरी प्रवृत्ति की देन है। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि वह वंशानुक्रमगत श्रेष्ठ जाति का है।
संविधान निर्माताओं ने सामाजिक विद्रूप को समाप्त करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी। तब नेकनीयती से यह उम्मीद की गई थी कि दस वर्षों में पीढ़ीगत असमानता समाप्त हो जाएगी। जाहिर है कि सदियों से करोड़ों वंचित लोगों को सीमित अवसर उपलब्ध कराकर सामाजिक बराबरी पर खड़ा नहीं किया जा सकता था। नतीजन आरक्षण अवधि बढ़ती गयी। लेकिन निर्णय प्रक्रिया में राजनीतिक लाभ-हानि का हिसाब-किताब प्रधान निर्णायक तत्व रहा है। इस बीच आरक्षित वर्ग में लाभान्वित वर्ग के ताकतवर लोगों ने अपने-अपनों के लिए वंशानुगत आरक्षण सुविधा का प्रबंध कर लिया।
जबकि जरूरत इस बात की थी कि वंचित समाज के उन लोगों ने कमजोर लोगों को जो आरक्षण का वाजिब लाभ हासिल नहीं कर पाए,उनको पहले अवसर दिया जाता। राज्य बनने के बाद यदि सरकार इस दिशा में पहल करती तो बेशक हम आज बेहतर उत्तराखंड में होते । दुर्भाग्य कहें या इष्ट-मित्र राजभोग की राजनीति, राज्य की रीति नीति की शुरुआत ही उल्टी दिशा में हुई। पहले मुख्यमंत्री अभिनंदन समारोहों में मस्त रहे। उस काल के दो ही निर्णय याद रहेंगे, अस्थाई राजधानी और स्थाई निवास। दोनों उत्तराखंड विरोधी।
पहली निर्वाचित सरकार सत्ता की रेवड़ियां अपनों में बांटने तक व्यस्त-मस्त रही। लाखों उत्तराखंडियों के लोमहर्षक संघर्ष-उत्तराखंड आंदोलन-को सरकार द्वारा चिन्हित लोगों की त्याग तपस्या साबित करने का खेल भी तभी रचा गया था। उत्तराखंड राज्य की मूल अवधारणा को पूरी तरह नष्ट-भ्रष्ट करने का सबसे संघातक हमला, जनसंख्या के आधार पर विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन भी उसी दौर में हुआ है। पर्वतीय क्षेत्रों की कई सीटें नीचे खिसक गई।
विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन 2027 के चुनाव से पहले होना है। यदि परिसीमन केवल जनसंख्या के आधार पर होगा तो पर्वतीय क्षेत्रों की काफी सीटें खत्म हो जाएंगी। सत्ता संतुलन में पहाड़ बेहद कमजोर हो जाएगा। कुछ ज्यादा नेताओं की सत्ता भोग लिप्सा से पहाड़ की तलहटी पर भी बोझ ही बढ़ेगा। यह उत्तराखंड के भविष्य के लिए अशुभ विकार साबित होगा, तय है। अगले परिसीमन का आधार क्षेत्रफल भी हो,इसके लिए अभी से तैयारी शुरू हो जानी चाहिए। पहल कौन करेगा? यह देखना वाकी है।