फूलदेई, छम्मा देई, जतुकै देला, उतुकै सही…
*गोविन्द पुण्डीर*
नई टिहरी। आज 14 मार्च से फूलदेई का त्यौहार (फूल संक्रान्ति) शुरू हो रहा है। चैत की संक्रांति यानी फूल संक्रांति से शुरू होने इस त्यौहार में बच्चे पूरे महीने घरों की देहरी पर फूल डालते हैं। गढ़वाल में इसे फूल संग्रांद, जौनसार भाबर में गोगा और कुमाऊं में फूलदेई पर्व कहा जाता है। फूल डालने वाले बच्चे फुलारे कहलाते हैं।
बच्चे इस मौके पर गीत गाते हैं–
फूलदेई, छम्मा देई, जतुकै देला, उतुकै सही
दैणी द्वार, भर भकार, ये देली सौं बारम्बार नमस्कार
दरअसल में यह मौल्यार (बसंत) का पर्व है। इन दिनों उत्तराखंड में फूलों की चादर बिछी दिखती है। बच्चे कंडी (टोकरी) में खेतों-जंगलों से फूल चुनकर लाते हैं और सुबह-सुबह हर घर की देहरी पर डाल जाते हैं। माना जाता है कि घर के द्वार पर फूल डालकर ईश्वर भी प्रसन्न होंगे और वहां आकर खुशियां बरसाएंगे।
इस पर्व की झलक लोकगीतों में भी दिखती है–
“चला फुलारी फूलों को,सौदा-सौदा फूल बिरौला
भौंरों का जूठा फूल ना तोड्यां, म्वारर्यूं का जूठा फूल ना लैयां”
पहाड़ में बदलते वक्त के साथ-साथ हमने फुलदेई को भुला सा दिया है। बच्चे जहां उत्साह से फूल डालते थे अब धीरे धीरे यह परंपरा लुप्त होने की कगार पर है। 14 मार्च से शुरू होने वाले इस पर्व का समापन बिखौती (13 अप्रैल बैसाखी) को होगा । फूल संग्राद के दिन फुलारी को टीका लगाकर पैसे, गुड़, स्वाले-पकौडे या मिठाई देकर विदा किया जाता है। बिखौती के दिन से उत्तराखंड में जगह-जगह मेले लगते हैं जो एक-डेढ़ महीने तक चलते हैं।
पुराणों में वर्णित है कि शिव शीत काल में अपनी तपस्या में लीन थे ऋतू परिवर्तन के कई बर्ष बीत गए लेकिन शिव की तंद्रा नहीं टूटी। माँ पार्वती ही नहीं बल्कि नंदी शिव गण व संसार में कई बर्ष शिव के तंद्रालीन होने से बेमौसमी हो गये। आखिर माँ पार्वती ने ही युक्ति निकाली। कविलास में सर्वप्रथम फ्योली के पीले फूल खिलने के कारण सभी शिव गणों को पीताम्बरी जामा पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरुप दे दिया। फिर सभी से कहा कि वह देव क्यारियों से ऐसे पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश को महकाए। सबने अनुसरण किया और पुष्प सर्वप्रथम शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित किये गए जिसे फुलदेई कहा गया। साथ में सभी एक सुर में आदिदेव महादेव से उनकी तपस्या में बाधा डालने के लिए क्षमा मांगते हुए कहने लगे- फुलदेई क्षमा देई, भर भंकार तेरे द्वार आये महाराज ! शिव की तंद्रा टूटी बच्चों को देखकर उनका गुस्सा शांत हुआ और वे भी प्रसन्न मन इस त्यौहार में शामिल हुए। तब से पहाडो में फुलदेई पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा।
सतयुग से लेकर वर्तमान तक इस परम्परा का निर्वहन करने वाले बाल-ग्वाल पूरी धरा के ऐसे वैज्ञानिक हुए जिन्होंने फूलों की महत्तता का उदघोष श्रृष्टि में करवाया तभी से पुष्प देव प्रिय, जनप्रिय और लोक समाज प्रिय माने गए। पुष्प में कोमलता है अत: इसे पार्वती तुल्य माना गया। यही कारण भी है कि पुष्प सबसे ज्यादा लोकप्रिय महिलाओं के लिए है जिन्हें सतयुग से लेकर कलयुग तक आज भी महिलायें आभूषण के रूप में इस्तेमाल करती हैं। बाल पर्व के रूप में पहाड़ी जन-मानस में प्रसिद्ध फूलदेई त्यौहार से ही हिन्दू शक संवत शुरू होता है।