कविता: “आसमान को छू आती है”
गढ़ निनाद न्यूज़
कुंआ बहुत गहरा है,
उससे पानी कैसे खींचे?
सूख रहा मन का विरूआ,
कैसे उसको सींचे?
चाहत थी हरियाली की,
उग आया है रेगिस्तान!
हुई अचानक जाने कैसे?
बस्ती यह सुनसान!
अधरों पर थे गीत और
कदमों में गति जीवन की।
स्वाभिमान के साथ समन्वित,
सहज प्रतीती अपनेपन की।
सब कुछ बदला-बदला सा,
और पराया लगता अपना!
देख नहीं पाया अरसे से,
कोई प्यारा सा सपना।
होता कितना पीड़ादायक?
सपनों का अकाल मर जाना!
जर्जर तन बोझिल मन से,
जीवन का भार उठा पाना।
जिजीविषा लेकिन अब भी,
तन की सीमा को झुठलाती है।
धरती से भर कर उड़ान,
नित आसमान को छू आती है।
एक छुअन तन-मन को मेरे,
फिर-फिर कर देती अनुरंजित।
यौवन का वह राग पुराना,
अणु-अणु में हो जाता व्यंजित।
** सोमवारी लाल उनियाल **