ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी माधवाश्रम जी के विचारों पर शोध की आवश्यकता -रसिक महाराज
रायवाला। ब्रहमलीन ज्योतिष पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी माधवाश्रम महाराज सच्चे अर्थों में एक महात्यागी एवं ब्रह्मज्ञानी संत थे। आज भारतवर्ष में उनके विचारों एवं ज्ञान के मार्ग पर चलने की आवश्यकता है।
उक्त सद्वविचार उनके कृपापात्र शिष्य नृसिंह पीठाधीश्वर स्वामी रसिक महाराज ने नृसिंह वाटिका आश्रम रायवाला हरिद्वार में आयोजित संतों के श्राद्ध द्वादशी पर तर्पण एवं अर्पण कार्यक्रम में व्यक्त किए। उन्होंने बताया कि त्याग बाहरी है , वैराग्य आंतरिक है पर दोनों अवस्थाओं में वैष्णव का एक भाव तो दृढ़ है ही कि “अपने समेत सब प्रभु का है”।
शरीर से त्यागने पर त्यागकर्ता अलग खड़ा रहता है। मन से त्यागने पर त्यागकर्ता अलग खड़ा नहीं रह सकता। त्यागने की बात कई लोगों को अच्छी नहीं लगती तो वे अपनाने की भाषा मे सोच सकते हैं। यहाँ अपनाना प्रभु को है स्वयं समेत सब कुछ प्रभु का मान कर।
प्रभु को मानने वाले का बंधनकारी राग द्वेष छूट जाता है। ये मुख्य रूप से आंख और कान मे रहते हैं। कुछ भी देखा, कुछ भी सुना और तत्काल उसे पसंद या नापसंद करने लगते हैं। यह जकड़न बडी पीड़ादायक है। इससे छूटने का रास्ता मालूम नहीं होता तो कर्ता भोक्ता भाव से इसका औचित्य-समर्थन होने लगता है अर्थात पीड़ा वृद्धि के इंतजाम मे खुद जुट जाना।
ये पीड़ा कोई नहीं देता सिवाय अपने राग द्वेष या पसंद नापसंद की जकड़न मे जकडे रहने के। जकडन अच्छी नहीं लगती पर उसका मूल कारण दिखाई ही नहीं देता।
राग द्वेष की जकड़न स्वतः नहीं है।राग द्वेष के मूल में अहंता ममता अर्थात् मैमेरेपन का भाव है। इसे कृष्ण को अर्पण करना है और बदले मे कृष्ण को ले लेना है। सौदा महंगा नहीं है। यदि कृष्ण को लेना भी चाहते हैं और अहंता ममता छोड़ना भी नहीं चाहते। तो यह बेईमानी नहीं चल सकती। कृष्ण मिलेंगे ही नहीं।
और यदि मिल गये तो वे आनन्दस्वरूप हैं। हम अहंता ममता को आनंदस्वरूप बनाना चाहते हैं, कोशिश भी करते हैं और यह असंभव है। हमे अहंता ममता कृष्ण चरणों में अर्पित करनी होगी। चूंकि तादात्म्य के कारण हम स्वयं अहंता ममता बने हुए हैं अतः हमें अपने आपको समर्पित करना होगा। यदि आत्मा अलग खडी रह जाती है तो आत्मा को भी समर्पित कर देना होगा- आत्मना सह समर्पयामि।इससे समर्पण कर्ता खुद समर्पित हो जाता है। कुछ भी नहीं बचता केवल कृष्ण ही रहते हैं अपने परिपूर्ण स्वरूप में।
हम आधा अधूरा का अवलंबन करते हैं उसमें आनंद कहां? परिपूर्ण का अवलंबन करें तो हममे भी पूर्णता का अनुभव आकार ले।
अहंता ममता पूर्ण नहीं हो सकती। पूर्ण के अवलंबन से अहंता ममता विलीन हो जाती है। आनंद प्रकट होता है।
अहंता ममता नहीं होती तो राग द्वेष (पसंद नापसंद) भी नहीं होते। वे नहीं होते तो उनकी जकडन से अनुभव होने वाली पीड़ा का भी सुखद अंत हो जाता है।
प्रभु श्रीमद्भगवद्गीता मे राग द्वेष के वश मे न होने की आज्ञा करते हैं।वशीकरण क्या है? किसी को अपने वश मे कर लेना। राग द्वेष वृत्तियाँ हैं जबकि वैष्णव मूलतः भगवद्स्वरुप है। लौकिक नहीं है। अब भगवद्स्वरुप, अविद्याजन्य वृत्तियों के वश मे रहे तो क्या होगा? अतः अहंताममता कृष्णार्पण करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।अहंताममता (मै और मेरापन) को महत्व देने के कारण ही रागद्वेषादि वृत्तियाँ वैष्णव को अपने कब्जे में कर लेती हैं।
यह प्रयास आरंभ करने पर कई बार ये वृत्तियां अपने वश मे करने की कोशिश करेंगी, अच्छा बुरा लगने लगेगा, पसंदनापसंद होने लगेगा। उस समय सावधान रहना है। पसंदनापसंद के वश मे नहीं होना है। ज्यादातर यह भावहिंसा के रुप मे होता है। किसी व्यक्ति क़ो पसंद करना या नापसंद करना। नापसंदगी ही ज्यादा होती है। यह वैष्णव का स्वरूप नहीं है।वैष्णव द्वेष के वश मे होगा तो उसका मूल स्वरूप कैसे प्रकट होगा जो प्रभु को प्रिय है?
आज इस अवसर पर ब्राह्मणों द्वारा वेद पाठ, विष्णु सहस्रनाम, भजन कीर्तन किया गया।