चर्चा: राजनैतिक समानता एक चिंतनीय विषय
नृसिंह पीठाधीश्वर स्वामी रसिक
परमाध्यक्ष नृसिंह वाटिका आश्रम
रायवाला हरिद्वार (सम्पर्क-9872751512) की कलम से
राजनीतिक स्वतंत्रता का मतलब बुनियादी तौर पर सार्वजनीन मताधिकार और प्रतिनिधिक सरकार है। सार्वजनीन मताधिकार का मतलब यह है कि सभी वयस्कों को मत देने का अधिकार है और एक व्यक्ति का एक ही मत होता है। प्रतिनिधिक सरकार का अर्थ यह है कि सभी को बिना किसी भेदभाव के चुनाव में स्पर्धा में खड़े होने का अधिकार है और वह सार्वजनिक सेवा के लिए चुनाव में खड़ा होता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी को मत देने के लिए विवश किया जा सकता है और प्रत्येक को अपनी पसन्द जाहिर करनी है या यदि कुछ लोगों को गलत प्रभाव डालकर मतदान करने से विमुख कर दिया जाता है या चाहे जिसे मत देने के लिए राजी कर लिया जाता है तो उसके संबंध में राज्य कुछ खास नहीं कर सकता और अगर ज्यादातर लोग या काफी बड़ी संख्या में लोग मतदान नहीं करते और इस प्रकार सरकार के प्रतिनिधिक स्वरूप को कमजोर करते हैं तो राजनीतिक समानता की शुद्ध उदारवादी समझ के अनुसार किसी प्रकार की राजनीतिक असमानता का आरोप भी नहीं लगाया जा सकता है। (उदाहरण के लिए, अमरीका में, जो सभी नागरिकों को पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता और समानता प्रदान करने वाला लोकतंत्र होने का दावा करता है, लगभग केवल आधे लोग ही चुनावों में मतदान करते हैं। जो लोग मतदान नहीं करते वे मुख्य रूप से गरीब तबके के या काले लोग और उनमें से भी खासतौर से गरीब काले लोग होते हैं। उदारवादी परंपरा में यह कोई चिंता का विषय नहीं है- संवैधानिक रूप से तो समानता की गारंटी दे दी गई है और वह सबको मिली हुई है।)
मात्र तकनीकी तौर या संवैधानिक रूप से गारंटी की गई राजनीतिक समानता का मतलब भी सच्ची राजनीतिक समानता नहीं होती, क्योंकि देखा गया है कि प्रमुख उदारवादी लोकतंत्रों में पैसे की ताकत एक प्रमुख भूमिका निभाती है। जिन लोगों, समूहों या वर्गों के पास यह ताकत होती है वे अगर इसका इस्तेमाल करने को तत्पर रहते हैं तो उन्हें अपने राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाने में इससे इतनी ज्यादा मदद मिलती है कि उसकी काट करना कठिन होता है। इस प्रकार अकेले पैसे की ताकत आमतौर पर अक्सर चुनावों के परिणामों को नियंत्रित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
ऐसा माना जाता है कि राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और उनकी रिपब्लिकलन पार्टी ने अमरीका के राष्ट्रपति के पिछले चुनाव अभियान में अरबों डॉलर खर्च किए और यह सारी रकम बड़े-बड़े व्यावसायिक घरानों और कंपनियों से इकट्ठा की गई थी। इस हालत में यह समझ पाना कठिन है कि स्वयं बुश और उनकी पार्टी अगर कंपनियों के हितों और आम लोगों की भलाई के बीच चुनाव करने की स्थिति उत्पन्न होने पर कंपनियों के हितों का पक्ष लेने से कैसे विमुख हो सकते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि किसी उदारवादी लोकतंत्र में राजनीतिक समानता स्थापित करना बहुत कठिन है। यहाँ इस बात का उल्लेख भी किया जा सकता है कि भारत में यह सब और भी भोंडा रूप ले सकता है, क्योंकि यहाँ तो कभी-कभी मतदाताओं को पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा गैर-कानूनी तौर पर नकद भुगतान किया जाता है या रात-भर मुफ्त शराब पिलाई जाती है। इसके अलावा, यह भी एक प्रकट रहस्य है कि अधिकतर भारतीय राजनीतिक दलों की कंपनियों से मित्रता होती है और ये कंपनियाँ आमतौर पर अपने काले धन में से करोड़ों-अरबों रुपए उन्हें चुनाव लड़ने वगैरह के लिए अनुदान में देती हैं।
केवल उम्मीदवारों और पार्टियों द्वारा खर्च किया गया पैसा ही नहीं बल्कि पैसे के संबंध का पूरा तंत्र इसमें मददगार होता है। प्रचार माध्यम आजकल के उदारवादी लोकतंत्रों में और खास कर इस तरह के जिन लोकतंत्रों में बहुत बड़े मध्य वर्ग का अस्तित्व है उनमें बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं और यद्यपि इन माध्यमों को स्वतंत्र माना जाता है लेकिन वास्तव में वे स्वतंत्र हो नहीं सकते, क्योंकि वे अपने आर्थिक अस्तित्व और फलने-फूलने के लिए मुख्य रूप से कंपनियों के विज्ञापनों आपर निर्भर होते हैं और उनके लिए व्यवसाय जगत् की राजनीतिक संवेदनशीलताओं और हितों तथा कंपनियों की कार्य-सूची के प्रति संवेदनशील होना जरूरी होता है। जिस हद तक प्रचार माध्यम लोगों को प्रभावित करते हैं उस हद तक ये कार्य-सूचियाँ उन तक संप्रेषित हो जाती हैं, चाहे यह काम वे किसी सोची-समझी योजना के अधीन करते हों या यों ही, या इसके पीछे उनकी मजबूरी हो या न हो। इस प्रकार इनका अंतिम परिणाम राजनीतिक समानता के स्तर की उस समतलता को भंग कर देता है जो अन्यथा व्यवहारतः कायम रहती।
ऊपर कही गई बातों के अलावा भारत जैसे लोकतंत्र में शक्तिशाली कार्यकारी नौकरशाहियाँ और न्यायिक सेवाओं के सदस्य होते हैं, जिन्हें राजनीतिज्ञों की तरह जनता नहीं चुनती और अगर लोग उनसे तंग आ चुके हैं तो उनका कोई चुनाव नहीं होता कि वे उन्हें निकाल बाहर करें। अपनी शैक्षिक तथा पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण इन समूहों के सदस्य अक्सर ऊपरी आर्थिक तबकों औेर वर्गों (या जातियों) से आते हैं और नीति-निर्धारण को अनवरत और प्रबल रूप से प्रभावित करते रहते हैं। जाहिर है कि ये समूह अन्यों की अपेक्षा अधिक राजनीतिक समानता का उपभोग करते हैं। उदाहरण के लिए, जब उच्चतम न्यायालय का कोई न्यायाधीश सरकार के किसी नीतिगत विधान पर रोक लगा देता है और उसे गैर-कानूनी घोषित कर देता है हालांकि उस विधान की रचना स्वतंत्र और साफ-सुथरे चुनाव में निर्वाचित प्रतिनिधियों ने, चाहे वे जितने अशिक्षित या शैक्षित दृष्टि से योग्यताहीन हों, की है। वह न्यायाधीश कानूनी तौर पर तो नहीं लेकिन विशुद्ध राजनीतिक दृष्टिकोण है स्पष्टतः अपने अन्य सह-नागरिकों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ समानता की स्थिति का उपभोग कर रहा होता है। (‘अभिजन सिद्धांत’ नामक एक ऐसा उदारवादी लोकतांत्रिक सिद्धांत भी है जिसका कहना है कि राजनीतिक समानता एक भ्रम है, क्योंकि राजनीतिक शक्ति का उपभोग हमेशा अभिजन ही करता है और उसी को करना चाहिए। इसलिए गरीब या आर्थिक दृष्टि से कमजोर नागरिकों को अधिक राजनीतिक औकात -या समानता देने की कोई जरूरत नहीं है और ऐसा करने की कोशिश करना बेकार है।