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फूल संग्रांद पर विशेष

फूल संग्रांद पर विशेष
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"चला फुलारी फूलों को, सौदा-सौदा फूल बिरौला, भौंरों का जूठा फूल ना तोड्यां म्वारर्यूं का जूठा फूल ना लैयां"

जी हां, हम बात कर रहे हैं फूलदेई त्यौहार की। फूलदेई को फुलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, फूल संक्रांति तथा फूल संग्रांद आदि नामों से जाना जाता है। आपको बता दें कि मीन संक्रांति के दिन घरों की देहरी / दहलीज पर बच्चे गाना गाते हुए फूल डालते हैं, इस त्यौहार को फूलदेई कहा जाता है। कहीं-कहीं फूलों के साथ बच्चे चावल भी डालते हैं। गढ़वाल में इसे फूल संग्रांद और कुमाऊं में फूलदेई पर्व कहा जाता है। इस त्यौहार में फूल डालने वाले बच्चे “फुलारी” कहलाते हैं।

उत्तराखण्ड का पावन पर्व फूलदेई की हार्दिक शुभकामनाएं

मीन संक्रांति के दिन होने के कारण यह फूलदेई त्यौहार प्रत्येक वर्ष 14 मार्च अथवा 15 मार्च के दिन ही होता है। इस साल यह 14 मार्च 2022 को है। हमारे हिंदू धर्म में अधिकांश हिंदू त्योहार चंद्रमा की स्थिति के अनुसार मनाये जाते हैं, अतः उनकी एक निश्चित तिथि निर्धारित रहती है। परंतु संक्रांति पर आधारित त्यौहार सूर्य के चारों तरफ प्रथ्वी के चक्र की स्थिति के अनुसार मनाए जाते है। इसलिए हिंदू पंचांग के अनुसार कोई तय तिथि निर्धारित नहीं की जा सकती है। अतः फूलदेई त्यौहार फाल्गुन अथवा चैत्र मे से किसी भी माह में हो सकता है।

क्या है मान्यता ?

फूलदेई भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक स्थानीय त्यौहार है, जो चैत्र माह के आगमन पर मनाया जाता है। सम्पूर्ण उत्तराखंड में इस चैत्र महीने के प्रारम्भ होते ही अनेक पुष्प खिल जाते हैं, जिनमें फ्यूंली, लाई, गुरियाल, किनगोड़, हिसर, बुरांस आदि प्रमुख हैं । चैत्र की पहली गते से छोटे-छोटे बच्चे हाथों में कैंडी (बारीक बांस की कविलास अर्थात शिव के कैलाश में सर्वप्रथम सतयुग में पुष्प की पूजा और महत्व का वर्णन सुनने को मिलता है। 

पुराणों में वर्णित है कि शिव शीत काल में अपनी तपस्या में लीन थे। ऋतु परिवर्तन के कई वर्ष बीत गए लेकिन शिव की तंद्रा नहीं टूटी। माँ पार्वती ही नहीं बल्कि नंदी शिव गण व संसार में कई वर्ष शिव के तंद्रालीन होने से बेमौसमी हो गये। आखिर माँ पार्वती ने ही युक्ति निकाली। कविलास (कंडी) में सर्वप्रथम फ्योंली के पीले फूल खिलने के कारण सभी शिव गणों को पीताम्बरी जामा पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरूप दे दिया। फिर सभी से कहा कि वह देव क्यारियों से ऐसे पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश को महक उठे। सबने अनुसरण किया और पुष्प सर्वप्रथम शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित किये गए जिसे फूलदेई कहा गया। साथ में सभी एक सुर में आदिदेव महादेव से उनकी तपस्या में बाधा डालने के लिए क्षमा मांगते हुए कहने लगे- फुलदेई क्षमा देई, भर भंकार तेरे द्वार आये महाराज ! शिव की तंद्रा टूटी बच्चों को देखकर उनका गुस्सा शांत हुआ और वे भी प्रसन्न मन इस त्यौहार में शामिल हुए तब से पहाड़ों में फूलदेई पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा। जिसे आज भी अबोध बच्चे ही मनाते हैं और इसका समापन बूढ़े-बुजुर्ग करते हैं।

सतयुग से लेकर वर्तमान तक इस परम्परा का निर्वहन करने वाले बाल-ग्वाल पूरी धरा के ऐसे वैज्ञानिक हुए जिन्होंने फूलों की महत्ता का उद्घोष सृष्टि में करवाया। तभी से पुष्प देव प्रिय, जनप्रिय और लोक समाज प्रिय माने गए। पुष्प में कोमलता है। अत: इसे पार्वती तुल्य माना गया है। यही कारण है कि पुष्प सबसे ज्यादा लोकप्रिय महिलाओं के लिए है जिन्हें सतयुग से लेकर कलयुग तक आज भी महिलाएं आभूषण के रूप में इस्तेमाल करती हैं।

बता दें कि बाल पर्व के रूप में पहाड़ी जन-मानस में प्रसिद्ध फूलदेई त्यौहार से ही हिन्दू शक संवत शुरू हुआ फिर भी हम इस पर्व को बेहद हलके में लेते हैं।


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Govind Pundir

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