उत्तराखण्ड राज्य आंदोलनकारियों के सपने-सपने ही रह गये – जगत सागर बिष्ट
गढ़ निनाद न्यूज़ 11 सितम्बर 2020
नई टिहरी। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की लडाई लड़ने वाले आंदोलनकारियों के सपनों से लगता था कि पृथक प्रदेश बनने से पहाड़ का युवा व पानी जो देश के अन्य प्रंतों का काम आता रहा है वो शायद उत्तराखण्ड के चौमुखी विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा । लेकिन यह बात राज्य आंदोलनकारियों के सपनों तक सीमित रहा जाना दुर्भाग्यापूर्ण रहा ।
प्रदेश का गठन 9 नवम्बर 2000 को किया गया। बीस साल बाद भी प्रदेश में मूल भूत समस्याओं का अंबार लगा है। सड़कों पर बेरोजगारो की भरमार से अभिभावकों के माथे में चिन्ता की लकीरे देखते ही बन रही है । जिसका प्रमुख कारण कही न कही प्रदेश की राजनीति में राजनीतिक महत्वकांक्षा रही है।
प्रदेश के गठन से लेकर आज तक अधिकंश समय शासन-प्रशासन में उन जन प्रतिनिधियों व उच्चाधिकारियों का काबिज होना रहा है।जिनका प्रदेश के जल, जंगल, जमीन व बेरोजगार युवाओं से कोई सरोकार नही रहा। जिसका खामियाजा आज भी प्रदेश की गरीब जनता को भुगतना पड रहा है। प्रदेश के युवा बेरोजगारों को सड़को पर घूमना आज मजबूरी बन गयी है। बच्चों को पालने की लालसा में देश के अन्य प्रदेशों व विदेशों में नौकरी में गये युवा बेरोजगारों की पोल हाल में कोरोना काल ने खोल दी। जब गाड़ीयां भर- भर कर बेरोजगारों की घर वापसी होनी शुरु हुई।तब प्रदेश सरकार उनकी संख्या देख कर हैरान हो गयी ।
प्रदेश सरकार आज तक उन बेरोजगरों के सही आंकडे नही बता पायी। इसका सबसे बडा व प्रमुख कारण सरकार की प्रदेश के बेरोजगारों के लिए मजबूत ठोस नीति न होना है । प्रदेश सरकार मैदानी प्रदेशों की तर्ज पर केन्द्र व राज्य की योजनाओ को पहाड़ी प्रदेश में थोपती रही है। सरकार के नुमायंदे प्रदेश में अपार रोजगार के संभावनों को तलाशनें के लिए कोई प्रयास नही कर रही है जिसके फलस्वरुप प्रदेश में बेरोजगारों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है | उत्तराखण्ड में बेरोजगारो की बढ़ती समस्या ही नही बलकी , प्रदेश के पहाड़ी जनपदो में लगातार शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली की बुनियादी समस्या जो उत्तर प्रदेश के समय से हैं उनके समाधान के लिए ही उत्तराखण्ड आंदोलन लडा गया । राज्य आंदोलन में विभिन्न वर्ग के लोगों ने सिरकत की। सैकडों ने प्रदेश के लिए कुर्बनी तक दी। महिलाएओं को अत्याचार व हिन्सा का सामना तक करना पड़ा। लम्बे संघर्ष के बाद मिले उतरांचल प्रदेश के अधिकांश मुखिया ऐसे रहे जिन्होंने पहाड़ की जवानी और पानी को रोकने के लिए कोई ठोस नीति तक नहीं बनायी।
प्रदेश में नौकरशाह हमेशा अब्बल रहा है, जिस कारण पहाड़ी जनप्रतिनिधि हर पांच साल में अपनी पसंद की नई योजनाओं को बनाते तो रहे लेकिन लागू कराने में विफल रहे। देश का यह पहला प्रदेश है ,जहां नौकरी के लिए आवेदन करने के लिए मूल निवास को प्राथमिकता नही दी जाती है। यहां तक की मूल निवास दिखाने पर उसे नौकरी तो क्या वह छात्र आवेदन तक नही भर सकता है।
प्रदेश के जनप्रतिनिधि ऐसी सोच के रहे कि उत्तराखण्ड आंदोलन की पृष्ठ भूमि को लेकर नेता बने। खैंट पर्वत पर महिनों तक आंदोलन कर नौकरीयों में अस्थाई निवास का जमकर विरोध किया गया। जब सत्ता मिली मंत्री बने तो मूल निवास को समाप्त कर अस्थाई निवास लागू कर दिया। हुआ यह कि उसके बाद अन्य राज्यों के निवासियों ने फर्जी प्रमाण पत्र बना- बनाकर प्रदेश में ठाठ की नौकरी कर रहे है ।
मूल निवासी उतराखण्डी़ जिनका नारा था, कोदा झंगोरा खायेगे ,उत्तराखण्ड बनायेगे I उनके नौजवान बच्चे आज सड़कों पर घूल फांक रहे है और देश में बेरोजगारो की संख्या बढाने में प्रदेश का नाम रोशन कर रहा है।
प्रदेश की मूल अवधारणा को समझने की जरुरत है। प्रदेश सरकार को चाहिए कि बेरोजगारों को रोजगार के लिए विभिन्न विकल्पो- जैसे कृषि, उद्यान, शिक्षा, स्वास्थ्य, छाेटी- छोटी जल विद्युत परियोजना, छोटे कुटीर उद्योगों , सौर ऊर्जा आदि के क्षेत्र में बडे पैमाने पर ईमानदारी से कार्य करे। योजनाऐं कागजों पर न रहकर धरातल पर अवतरित होने पर ही उत्तराखण्ड को अत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। तभी राज्य आंदोलनकारियों के सपने साकार होंगे और भविष्य में स्वावलम्बी राज्य का निर्माण होगा।