लॉकडाउन! प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण के लिये मानव का एकांतवास
“यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु।
मां ते मर्म विमृग्वरी या ते हृदयमर्पितम्॥“
अर्थात, हे! धरती माता जब हम अनुशंधान के क्रम में आप को खोदें तो, उससे तुम्हारे मर्मस्थलों और हृदय को पीड़ा न पहुंचे
डॉo आशीष रतूड़ी “प्रज्ञेय”
प्रकृति संरक्षण में वेदों की भूमिका
अथर्ववेद के भूमि-सुक्तु में वर्णित यह उत्तम सुक्ति अपने आप में, इस वसुंधरा का एक विस्तृत एवं भावनात्मक वर्णन तत्कालीन ऋषिओं की एक उच्चतम वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ-साथ उनकी प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता तथा इस रत्नगर्भा के साथ एकात्मक संबंध का भी प्रतीक है।
आज का आधुनिक विज्ञान अपने चर्मोत्कर्ष पर पहुंचने हेतु, जीवन की प्रत्येक दिशा में अपने नये-नये आयाम स्थापित कर रहा है। ऐसे में उसके अनेक संवेदनहीन कृत्य ने मानव को इस स्थिति में पहुंचा दिया है, जहां उसे प्रकृति की प्रत्येक अविरल सम्पदा के संरक्षण एवं उसे निर्मल रखने से संबंधित मूलभूत ज्ञान एवं प्रयोगों की लेश मात्र भी चिंता नही रही है। पिछले दशकों में भारत में ही नही बल्कि पूरी दुनिया में कई संस्थानों का निर्माण केवल इसी चिंता को लेकर किया गया है कि कैसे पर्यावरण को मध्य नजर रखते हुए सतत-विकास किया जाए, परंतु संस्थानों के निर्माण से अधिक प्रत्येक व्यक्ति के अंदर छुपे उस निज प्राथमिक संस्कार के संस्थान को पुनर्जीवित किया जाना चाहिये जो उसके जीवन मूल्यों को समझने एवं उन सभी जीवन आधार तत्व के संरक्षण के लिए उसे प्रेरित करता रहे ।
अगर भारतीय ऋषि संस्कृति की परंपराओं की बात करें तो वैदिक काल से ही यहां का सम्पूर्ण जन-मानस, पर्यावरण संरक्षण एवं प्रकृति के प्रत्येक अवयव को केवल आवश्यकता अनुसार ही प्रयोग करने का सबल पक्षधर होने के साथ ही
की वैदिक परिभाषाओं का भी सकल विश्व मे प्रबल उद्घोषक रहा है।
वर्तमान परिस्थितियों में प्रकृति का स्वरूप
अगर वार्ता वर्तमान परिदृश्य की करें जहां एक अतिससूक्ष्म विसाणु ने इस जगत की सभी अनंत परमाणु शक्तियों से संपन्न शक्तियों एवं आधुनिक विज्ञान से युक्त महा-शक्तियों को भी बड़ी बेबसता पूर्ण स्थिति में लाकर छोड़ दिया है, ऐसे में फिर भी यह राष्ट्र अपनी प्रबल इच्छा शक्ति एवं हर तरह के ज्ञान विज्ञान की अलख से पूरे विश्व को शांति, धैर्य और अपने साहस के प्रदीप्त स्तम्भ से आलोकित करने में लगा हुआ है।
हम जानते हैं कि इस देश का यह विशाल जनसमूह प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने अन्तःकरण में उस अनंत शक्ति के मानवता रूपी देव का सूक्ष्म दर्शन करता है, जो उसे जीव के साथ-साथ प्रकृति में विध्यमान प्रत्येक रचना के प्रति उसके उत्तरदायित्वों का प्रतिपल अभिज्ञान कराता रहता है।
वर्तमान परिदृश्य को देखकर यह भी कहा जा सकता है कि इस धरती पर कोई भी संकट चाहे वह मानव जाति या फिर प्रकृति के ऊपर ही क्यों न हो, हमेशा से ही मानव की लोभी सभ्यता का ही परिणाम रहा है।
विगत कुछ वर्षों से हम सब इस तरह की आपदाओं, घटना एवं दुर्घटनाओं के मूक साक्षि बन रहे हैं, आपदाएं प्राकृतिक हों या मानव निर्मित, वह हमेशा से ही संस्कृति एवं सभ्यताओं की विरोधी होती हैं, ऐसे में हम सब की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि हम आधुनिक विकास की इस अंधकारमयी गुहा में उस आलोक का सहारा लें जो हमारे सम्मुख इसके मंगलकारी रास्ते का ही नही बल्कि उन सभी प्रलयकारी पथों को भी उजागर करें, जिससे मानव विज्ञान को सिर्फ एक सुफल की तरह मानव जाति एवं प्रकृति के मध्य एकात्मक भाव का प्रतिपालक बनाने में अपनी सफल सहभागिता प्रदान करने के साथ ही सम्पूर्ण जगत का कल्याणकारी मार्ग-निर्देशन करें।
इस दिशा में वर्तमान की यह स्थिति जिसमें मानव ने पहली बार अपने निज-स्वार्थ और जिजिविषा को ध्यान में रखते हुए जो निर्णय लिए हैं, उससे अनजाने में प्रकृति को अपने अनुपम सौंदर्य को संरक्षित करने में एवं सभी प्राकृतिक सम्पदाओं को एक सुयस प्रदान कर दिया है। मानव के इस सुकृत्य के लिए प्रकृति उसका आभार भी व्यक्त कर रही है। जबकि हम जानते हैं, मानव का यह कृत्य कोई प्रकृति के ऊपर दया भाव नही है! यह तो उसकी विवशता है कि कुछ ही दिन, परन्तु उसने प्रकृति को अपना उन्मुक्त निनाद करने का मौका दिया है। उसकी यह विवसता भी उसके द्वारा ही निर्मित है, तो आश्चर्य कुछ भी नही होना चाहिये। आश्चर्य चकित कर देने वाली बात तो यह है कि जिस चिंता (पर्यवारण संरक्षण) के निवारण हेतु मनुज ने कई वर्षों से कई काल्पनिक योजनाओं एवं असक्षम मानव शक्तियों को लगा रखा है और कई आर्थिक सम्पदाओं एवं परियोजनाओं को भी इस कार्य हेतु झोंक रखा है।
हर साल कई देश-विदेश की गोष्ठियों का आयोजन कर हर बार अबोध विज्ञान के पर्यटन को बढ़ावा देना आदि क्रियाकलापों से आज तक ऐसे मंगलकारी परिणाम देखने को नही मिले जो कुछ हफ्तों के इस प्रतिबंध/लॉकडाउन, जिसे मानव ने सिर्फ अपनी जिजीविषा के तहत योजनाओं में रखा है और इस योजना ने प्रकृति एवं पर्यावरण संबंधित उन सभी अंधी योजनाओं को भी आलोकित करने के साथ ही साथ मानव को भी भविष्य में पर्यावरण संरक्षण के लिए अचूक योजनाओं को क्रियान्वित करने हेतु दिव्य चक्षु प्रदान कर इस दिशा में सोचने और देखने का सुअवसर दिया है।
प्रकृति संरक्षण के ज्ञान का अभिज्ञान
अब मानव को यह समझ लेना चाहिये कि कि सिर्फ संस्थानों के गठन एवं विज्ञान को आधार मान कर पर्यावरण एवं प्रकृति के इस व्यापक कला को संरक्षित नही किया जा सकता है।
इस सदी में मानव जाति के सबसे कठिन एवं विवशतापूर्ण काल मे जहां जीवन के हर आयाम में एक भय है, वहीं इस जीवन के मूल आधार वायु, जल, आकाश, अग्नि, पृथ्वि, से युक्त यह साकार प्रकृति एवं इसके पर्यावरण पर एक सकारात्मक परिवर्तन, जैव विविधता का संतुलन और धरा पर वन संपदा अपने सौंदर्य पर जिस तरह से आह्लादित दिख रही हैं, उस से तो यही अनुमान लगाया जा सकता है कि मानव केवल इस जीवनदायनी प्रकृति को कुछ पलों का एकांतवास देकर तो देखे, उसकी सभी समस्याओं हल कर प्राप्त हो जायेगा।
इस विषय पर हाल में ही हो रहे कई शोध भले ही इस सकारात्मकता को सैद्धान्तिक तौर से कुछ समय बाद प्रकाशित करें पर आप और हम इस मंगलकारी अभूतपूर्व पर्यावरणीय परिवर्तन को आजकल साक्षात तौर पर अपने चारों तरफ देख सकते हैं। बात सिर्फ हिमालयी राज्यों की ही नही है, वह तो हमेशा से ही प्रकृति के आमोद-प्रमोद से लाभान्वित हुए हैं, इस समय तो सौम्य प्रकृति एवं स्वच्छ पर्यावरण से अलंकृत प्राण-वायु, महानगरों में भी अपनी अमृत से जन-मानस के स्वांस विन्यास को बांधे हुए है। इस औषधि-विहीन रोग में यह शुद्ध प्राण वायु और इसकी छाया में ऋषि पतंजलि का योगाशीष मानव के लिये रामबाण जैसा कल्याणकारी हो सकता है। और कहा जाना चाहिये प्रकृति हर दशा में मानव को प्रेम ही प्रदान करती है, उसके पास प्रेम के अलावा और कुछ भी तो नही है, बस जरूरत है तो हमे अपनी कुटिल बुद्धि को समझाने की।
जिस तरह से इन दिनों कुछ मैदानी नगरों से भी बर्फ का दुपट्टा पहने हुए हिमालय साफ एवं स्वच्छ नजर आ रहा है, सभी तरह के वन्यजीव बिना किसी द्वेष भाव के मानव परीधि में विचरण कर रहे हों तथा शहर मध्य जलाशयों में स्नान करने आ रहे हों, जिस जगह पर आम दिनों में प्रत्येक व्यक्ति को भी स्नान करने की जगह मिल जाये तो वह भी बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। नगरों में हिरनों का विचरण, माँ गंगा के जल का चांदी के समान स्वच्छ एवं प्रदूषण रहित होना अपने आप मे मनुष्य को जीव जंतुओं एवं प्रकृति के साथ एकात्मक भाव से रहने के उस विसरित ज्ञान की पुनरावृत्ति कर पुनः स्थापित करने हेतु स्वयं प्रकृति द्वारा किये जाने वाली एक अनूठी प्रक्रिया का ही हिस्सा है। प्रकृति द्वारा मानव-हित में यह स्वच्छता भरा अभियान कई स्वच्छता अभियानों की धज्जियाँ उड़ा सकता है। यह अपने आप मे अनुपम है औऱ अतुलनीय भी।
दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रकृति उस व्यवस्था में मग्न है, जिससे आने वाले समय में वह फिर से मानव को उसकी अबोध पूर्ण एवं अभद्र लोभी क्रियाओं को करने के लिए एक स्वच्छ एवं भद्र प्रांगण दे सके, वास्तव में यह एक विरोधाभास ही तो है कि:
इस चर्चा के उपसार के तहत हम अपने से ही प्रश्न कर उन सभी समस्याओं का हल ढूंढ सकते हैं जो कई वर्षों से समय की ही गर्त में छिपे हुए हैं।
क्या यह वर्तमान परिस्थियां हमें पर्यावरण से संबंधित एक नई सकारात्मक दृष्टि प्रदान नही करती? और यह सोचने का शुभ अवसर भी प्रदान करती है कि भारतीय मनीषा प्रकृति-पर्यावरण संरक्षण में कैसे अपनी उपयोगी भूमिका का वहन कर सकती है?
भारतीय मूल के शास्त्रीय, आध्यत्म एवं वैज्ञानिक सम्पदा के आलोक में यदि वैश्विक पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयास हो, तो निश्चित ही परिणाम मंगलकारी होंगे। वैदिक ऋषि विज्ञानियों ने पृथ्वी से जिस प्रकार का रक्त-सम्बन्ध स्थापित किया है, वह इतना विलक्षण और आकर्षक हैं कि मानव के जैविक माता-पिता से किसी भी प्रकार से कम नहीं है। परन्तु यह भी जान लेना अतिआवश्यक है कि ये सभी सूत्र सिर्फ गायन हेतु नही है कि किसी वैश्विक मंच पर इनका गायन करके सिर्फ अपने भारतीय होने की पुष्टि मात्र कर सकें। यह प्रक्रिया अतीत में कई बार हमारे राष्ट्राध्यक्षों द्वारा अपनाई जा चुकी है और उसके कोई सार्थक परिणाम देखने को नही मिले हैं।
तनिक हम विचार करें कि यदि प्रकृति के साथ इस प्रकार के रक्त-सम्बन्ध का भाव हमारे अन्तर्मन में स्थापित हो तो क्या हम किसी भी प्रकार निरादर कर सकते हैं इस भूमि का ? क्या प्रदूषित कर सकते हैं जल और वायु को ? क्या भूखण्डों पर अपना स्वामित्व का दम्भ भरेंगे?
इस समय केवल आवश्यकता है यह विचार एवं चिंतन करने का कि हम व्यक्ति के अंदर क्या उस संस्कार युक्त संस्थान का निर्माण कर सकते हैं जो अविरल वेद-विज्ञान को अंगीकार करके पर्यावरण संरक्षण का संरक्षक बन सके औऱ सदैव विश्व-मांगल्य के भाव से ओत-प्रोत रहे। इसी भाव को लेकर हम यह कह सकते हैं।
“कल्प वृक्ष युक्त हो धरा हमारी,
वन्य जीवों से शोभा जंगल की हो।
और जब चंदन कुंज से संवरे धरा हमारी,
तो क्यों छोड़ धरा चाह “मंगल” की हो।।”