किसान आंदोलन और उत्तराखंड-1
कोई भी कानून हो क्या लाभ हानि
*विक्रम बिष्ट*
गढ़ निनाद समाचार* 1 फरवरी 2021
नई टिहरी। तराई के एक छोटे से तबके को छोड़कर उत्तराखंड में वर्तमान किसान आंदोलन के प्रति लगभग उदासीनता सी है। वजह साफ है कि तीनों नये कृषि कानूनों से यहां के आम किसानों पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। बेशक आवश्यक वस्तु अधिनियम को लेकर आशंकाएं हैं कि इसे जमाखोरी बढ़ने पर आम लोगों की दिक्कतें बढ़ेंगी किसान भी इनमें शामिल हैं।
उत्तराखंड के आम किसानों की समस्याएं पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कृषक समाज से भिन्न हैं। जो खेती किसानी बमुश्किल साल भर के चंद महीनों तक पेट पालने लायक अनाज नहीं उपजाती है। कोई कानून उसका क्या भला बुरा कर सकता है? हां, उत्तराखंड सरकार के कर्ता धर्ता यदि उत्तरप्रदेश की राजनीतिक और शासकीय मानसिकता की गुलामी से मुक्त होकर अनुकूल नीतियां बनाते, अमल के लिए रीढ़युक्त कारगर तंत्र स्थापित करते तो इन 20 वर्षों में उत्तराखंड की तस्वीर बिल्कुल भिन्न होती।
हर छोटे-बड़े आंदोलन की धुरी किसान
उत्तराखंड में किसान आंदोलनों का इतिहास सदियों में फैला है। रवांई का तिलाड़ी कांड, टिहरी की राज्य क्रांति, सरयू किनारे बेगार का विजयी घोष, गौरा देवी का अपना वन बचाने का अंगवालठा संकल्प, 1976 से टिहरी बांध विरोधी संघर्ष, 1988 में उत्तराखंड क्रांति दल को सशक्त पहचान देने वाला वनांदोलन और अगस्त 94 में पौड़ी से शुरू हुआ उत्तराखंड राज्य आंदोलन या तो ये किसानों के ही आंदोलन थे या किसान इनमें सबसे सशक्त, ईमानदार भूमिका में थे।
बेशक समाज के चंट चालाक लोगों ने इन ज़ह संघर्षों को अपने अपने हिसाब से नाम दिए। भुनाते रहे। जग प्रसिद्ध हुए। पुरस्कारों से नवाजे गए। सत्ता सुख और वैभव को प्राप्त हुए। किसान दरिद्र होता गया। खेती किसानी दरिद्रता की पर्याय बन गयी पलायन बढ़ता गया। जिस शोषक राजनीति-नौकरशाही -व्यवसायी गठजोड़ से मुक्ति के लिए आंदोलन दर आंदोलन हुए हैं , वह आज कई गुना ज्यादा मजबूत है। इस गठबंधन और आमजन के बीच सत्ता शयन पिपासुओं की अवसरवादी कतारें बढ़ती रही आई हैं। यह स्याह सच भ्रम को गहरा रहा है।–जारी।