18 पुराणों के ध्यान से जीवन होता है सात्विक: डॉ दुर्गेश आचार्य

टिहरी गढ़वाल, 3 अक्टूबर। श्री शहीद स्मारक प्रांगण में चल रही श्रीमद् देवी भागवत कथा अमृत महोत्सव में डॉ दुर्गेश महाराज ने कहा कि 18 पुराणों का सुबह-शाम ध्यान करने से जीवन सात्विक और दिव्य ऊर्जा से परिपूर्ण होता है। यह साधना व्यक्ति को धर्म, भक्ति और ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर करती है। कहा कि कलश यात्रा का पुण्य अश्वमेघ यज्ञ के समान माना गया है। इस आयोजन से समाज में एकता, सद्भावना और आस्था का संदेश फैलता है। वेदों के संकलन और पुराणों की रचना ने भारतीय संस्कृति को विशेष पहचान दी है। पुराणों के माध्यम से न केवल धर्म का उपदेश मिला, बल्कि समाज को प्रेम, ज्ञान और एकता की शक्ति भी प्राप्त हुई।
कथा में हयग्रीव अवतार का उल्लेख करते हुए बताया गया कि महामाया की कृपा से यह अवतार संभव हुआ। हयग्रीव को ज्ञान का स्वरूप माना गया है, जिनका उद्देश्य अज्ञान का नाश कर जीवन में प्रकाश फैलाना है। संतों की महिमा पर प्रकाश डालते हुए कहा गया कि सत्संग से मनुष्य अपने दुर्गुणों का नाश करता है। जब उनके सात्विक विचार जीवन में उतरते हैं तो हृदय निर्मल होता है और भीतर भगवान का जागरण होता है।
प्रवचन में व्यासदेव और उनकी माता सत्यवती की कथा का भी उल्लेख हुआ। कहा गया कि जब भगवान व्यास उनके पुत्र बने तभी मानव समाज को वेदों और पुराणों जैसी अमूल्य धरोहर प्राप्त हुई। उनकी कृपा से भारतीय ज्ञान परंपरा आज भी जीवंत और मार्गदर्शक बनी हुई है।
कथा में बताया गया कि सुखदेव जी जन्म से ही विरक्त और ज्ञानमग्न थे। वे मायामोह से रहित होकर केवल आत्मज्ञान में तल्लीन रहते थे। परंतु पिता महर्षि वेदव्यास के आग्रह और समाज के कल्याण की दृष्टि से उन्होंने गृहस्थ जीवन को स्वीकार किया। उन्होंने विवाह कर अल्प समय के लिए गृहस्थ आश्रम में रहकर यह शिक्षा दी कि संसार और गृहस्थ जीवन त्याग का नहीं, बल्कि साधना और धर्म पालन का एक श्रेष्ठ साधन है। यह भी बताया गया कि सुखदेव जी का जीवन हमें यह सिखाता है कि गृहस्थ आश्रम भी योग, धर्म और भक्ति का मार्ग हो सकता है, यदि व्यक्ति अपने मन को सात्विक और लक्ष्य को दिव्य बनाए।
आचार्य जी ने महाभिष और आच्छोदा कन्या के सदेह स्वर्गारोहण की कथा, शांतनु–सत्यवती के जन्म प्रसंग और गंगा पुत्र भीष्म के त्याग का उल्लेख करते हुए सनातन संस्कृति की महानता समझाई।
राष्ट्रीय संत डॉ. दुर्गेश आचार्य महाराज ने भावपूर्ण कथा सुनाई। उन्होंने महाभारत कालीन जनमेजय प्रसंग को जोड़ते हुए श्रोताओं को धर्म और विज्ञान के गहरे संबंध से अवगत कराया। महाराज ने बताया कि पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए जनमेजय ने सर्प यज्ञ किया, जिसमें निर्दोष सर्पों और ब्राह्मणों की भी आहुति हो गई। इसी पाप के फलस्वरूप वे कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गए। व्याकुल अवस्था में जब उन्होंने भगवान वेदव्यास की शरण ली, तब उन्हें देवी भागवत कथा का श्रवण कराया गया और मुक्ति का मार्ग मिला। कथा में बड़ी संख्या में भक्तजन मौजूद रहे।