उक्रांद की काशी यात्रा
विक्रम बिष्ट
उत्तराखंड क्रांति दल की बागडोर एक बार फिर अनुभवी काशी सिंह ऐरी के हाथों में है । हाल में दल के युवा कार्यकर्ताओं में खास तौर पर सोशल मीडिया में काफी उत्साह दिख रहा है। यदि इतना जोश-खरोश जमीन पर उतरा जा सके तो उक्रांद के लिए संभावनाओं के दरवाजे खुल सकते हैं।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन को मुकाम तक पहुंचाने में उक्रांद का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा है। राज्य आंदोलन के इतिहास से पूरी तरह अज्ञानी या पूर्वाग्रह ग्रस्त कोई व्यक्ति ही इससे इनकार कर सकता है। 1994 में उत्तर प्रदेश की सपा-बसपा सरकार ने शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी आरक्षण लागू किया था। उसके खिलाफ छात्रों में नाराजगी थी। उत्तराखंड में कई स्थानों पर छात्रों, युवाओं ने इसके खिलाफ बैठकें की थीं। स्थानीय स्तर पर संघर्ष समितियों का गठन भी किया था।
दूसरी ओर उक्रांद ने पृथक राज्य, आरक्षण, वन संरक्षण, पंचायत के परिसीमन और हिल कैडर को सख्ती से लागू करने की मांगों को लेकर नैनीताल और पौड़ी में जोरदार प्रदर्शन किया था। दिवाकर भट्ट की पहल पर आयोजित इन कार्यक्रमों में सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने गिरफ्तारियां दी थीं।
इन्हीं मुद्दों पर 2 अगस्त को उक्रांद संरक्षक इंद्रमणि बडोनी ने अपने सात सहयोगी कार्यकर्ताओं के साथ अनशन शुरू किया था। 7-8 अगस्त की रात पुलिस ने बल प्रयोग कर अनशनकारियों को गिरफ्तार किया था । इसके खिलाफ पौड़ी से शुरू जनाक्रोश की आग ने पूरे पहाड़ को आगोश में ले लिया था। आंदोलन की मूल धारा उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए गठित उक्रांद था। इसलिए आम सोच यह बन गयी थी कि तमाम समस्याओं का समाधान पृथक पर्वतीय राज्य है ।
जब पहाड़ पर आंदोलन चरमोत्कर्ष के दौर में पहुंचने लगा तो स्थापित राजनीतिक दलों और नेताओं को अपना अस्तित्व खतरे में महसूस हुआ। आंदोलन को हड़पने, छिन्न-भिन्न करने के लिए हथकंडे अपनाए गए । स्वतः स्फूर्त आंदोलन का जुमला भी इसी का एक हिस्सा था।
उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति का गठन उक्रांद की सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल थी। जिसके नतीजे यह दल आज तक भुगत रहा है ।
वस्तुतः समिति में घुसे जनाधारहीन नेताओं के जाल में फंस कर उक्रांद ने 1996 में लोकसभा चुनाव बहिष्कार का आत्मघाती निर्णय लिया था। इसकी अपनी एक अलग कहानी है।
राज्य गठन के बाद पहले चुनाव में उक्रांद विधानसभा में मात्र 4 सीटें हासिल कर सका। जबकि बसपा 8 सीटें लेकर तीसरी बड़ी पार्टी बन गयी। उक्रांद विधानसभा के भीतर- बाहर मुद्दों को लेकर अपनी जुझारू छवि नहीं बना पाया। उसकी स्थिति दिनोंदिन कमजोर होती गई। आजतक तोड़-फोड़ और समर्पित कैडर की जगह सत्तामोह के लिए गणेश परिक्रमा को तरजीह देना दल के लिए मर्मांतक साबित हुआ है।
आज उक्रांद को अपनी स्थिति और राज्य के भविष्य के मद्देनजर गंभीर चिंतन की जरूरत है। मुद्दों पर पैनी नजर के लिए कारगर संगठन और प्रशिक्षण की जरूरत है । बस कुछ महीने हैं उक्रांद के पास।
उत्तरकाशी या काशी !