विक्रम बिष्ट: लॉक डाउन में ताल-बेताल
गढ़ निनाद न्यूज़* 29 जुलाई 2020
पिछले दिनों एक अखबार में गंगी गांव के ताल तोक में सैकड़ों हरे पेड़ों के अवैध कटान की खबर पढ़ी तो सहसा विश्वास नहीं हुआ। इसमें गंगी के ही कुछ लोग शामिल हो सकते हैं यह तो मेरे जैसे लोगों के लिए कल्पनातीत है।
लगभग तीन दशक पहले जब टिहरी गढ़वाल के सीमांत गांव गंगी गया था, छोटे से खूबसूरत गांव के निश्चल-नेक दिल, सेवा भावी लोगों की छवि आज भी दिलो-दिमाग पर ताजी है। गंगी के लोग साल भर में एक बार आलू लदी भेड़ों के साथ हमारे गांव में भी आते थे। आलू और ऊन ने गांव को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना दिया था।
उनके लिए तीन लोग भगवान भी सरकार भी
उनके लिए बाहरी दुनिया के कुल जमा तीन लोग भगवान भी थे और सरकार भी! देवप्रयाग के पूर्व विधायक इंद्रमणि बड़ोनी, गढ़वाल के मंडलायुक्त (टिहरी के पूर्व जिलाधीश) सुरेंद्र सिंह पांगती और टिहरी शहर के प्राइवेट डॉक्टर नरेंद्र सिंह नेगी । उनको अपने सांसद, विधायक (टिहरी) और ब्लॉक प्रमुख के नाम मालूम नहीं थे।
उनकी सहज खुशमिजाजी और आत्मीयता के पीछे एक गहरा दर्द था। जिसे या तो वे व्यक्त नहीं कर पाते थे या उससे बेपरवाह थे। दो दशकों से वहां की जनसंख्या लगातार स्थिर थी या घट रही थी। 10-12 किलोमीटर नीचे उनका उपगांव रीह भी दुनिया से लगभग उतना ही दूर था जितना गंगी।
लड़कियों के अभाव में हैं कई कुंवारे
बताया गया कि पहले उनकी रिश्तेदारियां भिलंगना ब्लॉक के पिंस्वाड़, तोली,मेड, मारवाड़ी और उत्तरकाशी के टकनौर तक थी। कालांतर में विकास से अछूते गंगी तक सिमट कर रह गई। तब 85 परिवारों के गंगी में कुल पौने चार सौ लोग रहते थे, वृद्ध और बच्चों सहित। लगभग ढाई सौ मर्द और सवा स्त्रियां। 35 की आयु के 24 लोग लड़कियों के अभाव में अविवाहित थे।
सड़क, बिजली, अस्पताल से ज्यादा अस्तित्व का संकट!
ऊपरी तौर पर गांव तक सड़क, बिजली और अस्पताल उनकी मांगी थी। लेकिन असली चिंता तो अस्तित्व का संकट था। प्रमुख राष्ट्रीय पत्रिका दिनमान ने इसे प्रमुखता से छापा था।
अब गंगी तक विकास पहुंच गया है। तीर्थ पर्यटन से ज्यादा अब वहां प्रकृति के खजाने में सेंधमारी पहुंच रही है। यह बिषैली हवा क्या गंगी अपने घरों में ले चुकी है?
डीएफओ को आवाज़ नहीं आ रही
टिहरी के डीएफओ कोकोरोसे से फोन पर सच जानना चाहा तो बताया गया कि लॉकडाउन में यह सब हुआ है। जांच कहां तक पहुंची, दूसरी मर्तबा पूछना चाहा तो पता चला आवाज नहीं आ रही है।
उत्तराखंड आंदोलन के दौरान तो यह बड़े पैमाने पर हुआ। सफेदपोश लोगों ने सरकारी जमीनें हड़पीं। जमकर वन विनाश किया। उनमें कई तो राज आंदोलन की धरोहरें हैं। उत्तराखंड सरकार द्वारा प्रमाणित। सवाल बड़ा यह है कि इस घटना के पीछे क्या इसी मनसा वाले खिलाड़ी तो नहीं हैं।