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कविता: पहले माँ फिर बेटा

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जब मैं अपने माँ के गर्भ में था
वह ढोती रही ईंट
जब मेरा जन्म हुआ वह ढोती रही ईंट
जब मैं दुधमुँहाँ शिशु था
वह अपनी पीठ पर मुझे और सर पर ढोती रही ईंट।

मेरी माँ, माईपन का महाकाव्य है
यह मेरा सौभाग्य है कि मैं उसका बेटा हूँ
मेरी माँ लोहे की बनी है
मेरी माँ की देह से श्रम-संस्कृति के दोहे फूटे हैं
उसके पसीने और आँसू के संगम पर
ईंट-गारे, गिट्टी-पत्थर,
कोयला-सोयला, लोहा-लक्कड़ व लकड़ी-सकड़ी के स्वर सुनाई देते हैं।

मेरी माँ के पैरों की फटी बिवाइयों से पीब नहीं,
प्रगीत बहता है
मेरी माँ की खुरदरी हथेलियों का हुनर गोइंठा-गोहरा
की छपासी कला में देखा जा सकता है

मेरी माँ धूल, धुएँ और कुएँ की पहचान है
मेरी माँ धरती, नदी और गाय का गान है
मेरी माँ भूख की भाषा है
मेरी माँ मनुष्यता की मिट्टी की परिभाषा है
मेरी माँ मेरी उम्मीद है।

चढ़ते हुए घाम में चाम जल रहा है उसका
वह ईंट ढो रही है
उसके विरुद्ध झुलसाती हुई लू ही नहीं,
अग्नि की आँधी चल रही है
वह सुबह से शाम अविराम काम कर रही है
उसे अभी खेतों की निराई-गुड़ाई करनी है
वह थक कर चूर है
लेकिन उसे आधी रात तक चौका-बरतन करना है
मेरे लिए रोटी पोनी है, चिरई बनानी है
क्योंकि वह मजदूर है।

अब माँ की जगह मैं ढोता हूँ ईंट
कभी भट्ठे पर, कभी मंडी का मजदूर बन कर शहर में
और कभी-कभी पहाड़ों में पत्थर भी तोड़ता हूँ
काटता हूँ बोल्डर बड़ा-बड़ा
मैं गुरु हथौड़ा ही नहीं, घन चलाता हूँ खड़ा-खड़ा।

टाँकी और चकधारे के बीच मुझे मेरा समय नज़र आता है
मैं करनी, बसूली, साहुल, सूता, रूसा व पाटा से संवाद करता हूँ
और अँधेरे में ख़ुद बरता हूँ मेरा दुख मेरा दीपक है।

मैं मजदूर का बच्चा हूँ
मजदूर के बच्चे बचपन में ही बड़े हो जाते हैं
वे बूढ़ों की तरह सोचते हैं
उनकी बातें
भयानक कष्ट की कोख से जन्म लेती हैं
क्योंकि उनकी माँएँ
उनके मालिक की किताबों के पन्नों पर
उनका मल फेंकती हैं
उनके बीच की कविता सत्ता का प्रतिपक्ष रचती है

अब मेरी माँ वही कविता बन गयी है
जो दुनिया की ज़रूरत है।

©गोलेन्द्र पटेल


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