बाल कविता: ” दौड़ लगाती होली आई “
-डॉ.सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी
दौड़ लगाती होली आई ,
सर्दी रानी थी दूर भगाई ।
लाई संग में गुनगुनी धूप ,
मन को भाया उसका रूप ।
फूल खिले हर डाली पर ,
तितलियां आने लगी उधर ।
आये भौंरे गुन-गुन करते ,
पराग लेकर के पेट भरते ।
लगी रिझाने तन को हवा ,
लग रही मानों ज्यों दवा !
लाये खरीद पिचकारी-रंग ,
लगे खेलने सब संग-संग ।
सजी है घर-घर में रंगोली ,
निकले सब खेलने होली ।
देवर-भाभी औ जीजा-साले ,
बन पड़े सबके सब मतवाले !
रहती क्यों फिर पीछे साली ,
जीजा सूरत कर दी काली ।
दिख रहे हैं सब रंग-बिरंगे ,
बीमार थे जो अब रंगे-चंगे !
तरह-तरह के रंगों को खेल ,
बढ़ाया फिर आपस में मेल ।
पकवान बहुत घर में बनाये ,
खुद भी खाये और खिलाये ।
उम्र-धर्म का दिखा न भेद ,
होली ने पाट दिये सब छेद ।