देश-दुनिया

टीएचडीसी इंडिया विनिवेश: दाल में कुछ तो काला है!

Please click to share News

खबर को सुनें

विक्रम बिष्ट

केंद्र सरकार ने टीएचडीसी इंडिया को एनटीपीसी का हिस्सा बना दिया है। वर्ष 2013-14 से 2018 तक टीएचडीसी लगभग साढे तीन हजार करोड़ रुपयों का लाभ कमा चुकी है। इसलिए इसको मिनी रत्न श्रेणी में रखा गया है।  एनटीपीसी में विलय के पीछे सरकार की जो भी मंशा रही हो, लेकिन कुछ बड़े सवाल हैं, जिनका जवाब केंद्र, उत्तराखंड सरकार को टिहरी बांध प्रभावितों सहित उत्तराखंड की जनता को देना ही चाहिए, अन्यथा यही लगेगा कि दाल में कुछ काला है।

टिहरी जल विकास निगम (टीएचडीसी) की स्थापना टिहरी बांध निर्माण के लिए केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार के संयुक्त उपक्रम के रूप में जुलाई 1988 में की गई थी। 1999 में इसको बांध निर्माण का कार्य सौंपा गया था। इसमें दोनों सरकारों की क्रमश 75 और 25 प्रतिशत की भागीदारी है। उत्तराखंड सरकार की कंपनी में कोई भागीदारी नहीं है । इसलिए प्रदेश सरकार की टीएचडीसी प्रबंधन में भी कोई भागीदारी नहीं है। बताया जा रहा है कि उत्तराखंड सरकार ने विलीनीकरण के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र दिया है। जब प्रदेश सरकार का कंपनी प्रबंधन में कोई दखल ही नहीं है तो इसकी आपत्ति-अनापत्ति का कोई मूल्य नहीं हो सकता है।

केंद्र सरकार ने 19 जुलाई 1990 में टिहरी बांध परियोजना को सशर्त मंजूरी दी थी। इसमें विस्तृत पर्यावरण प्रबंधन योजना,जल संग्रह उपचार, विस्थापितों का पुनर्वास, जीव और वनस्पति, गुणवत्ता संरक्षण, आपदा प्रबंधन और भागीरथी घाटी प्रबंधन प्राधिकरण के गठन की शर्तें शामिल थी। टीएचडीसी को इन शर्तों पर बांध निर्माण के साथ-साथ अमल करना था। 

पर्यावरणीय स्वीकृति में यह स्पष्ट कहा गया था कि ऐसा न होने पर बांध का इंजीनियरिंग कार्य रोक दिया जाएगा।

फरवरी 1990 में बांध विस्थापितों के पुनर्वास की संपूर्ण  ज़िम्मेदारी टीएचडीसी को सौंप दी गई थी। पर्यावरणीय स्वीकृति की शर्त के ये सभी बिंदु टिहरी बांध परियोजना प्रभावित क्षेत्र सहित उत्तराखंड से संबंधित हैं।

 सवाल यह है कि उत्तराखंड सरकार ने क्या यह मान लिया है कि टीएचडीसी इन शर्तों पर सौ प्रतिशत काम कर चुकी है। कंपनी का टिहरी बांध प्रभावित क्षेत्र और यहां के लोगों के प्रति कोई दायित्व शेष नहीं है। यदि यही सही है तो राज्य सरकार को टीएचडीसी के विलीनीकरण या विनिवेश या बिक्री के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र देना उचित है। बल्कि प्रशस्ति पत्र भी देना चाहिए।

प्रदेश सरकार ने पिछले दिनों बांध प्रभावित क्षेत्र के 415 परिवारों के पुनर्वास का प्रस्ताव केंद्र को भेजा है । टीएचडीसी का कहना है कि सभी का पुनर्वास किया जा चुका है। सच्चाई क्या है, यह कौन बताएगा? यदि उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम के तहत परिसम्पत्तियों के बँटवारे में टीएचडीसी के स्वामित्व पर उत्तराखंड को इसका वैधानिक हिस्सा दिया गया होता तो आज यह स्थिति पैदा नहीं होती।

इधर कांग्रेस को टीएचडीसी पर रोना आ रहा है।पार्टी ने विलीनीकरण के फैसले के खिलाफ आंदोलन की घोषणा कर दी है। पहल पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने की, अंजाम तक शायद प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह पहुंचाएंगे!

अंतरिम सरकार के सिंचाई और ऊर्जा मंत्री भगत सिंह कोश्यारी ने बांध विस्थापितों के लिए मानवीय संवेदनापूर्ण पुनर्वास नीति की पहल की थी। नौकरशाही के मकड़जाल को तोड़कर उच्चस्तरीय समिति गठित कर प्रभावितों के हक में लीक से हटकर अपने फैसले लिए थे। टिहरी बांध और टीएचडीसी के इतिहास में यह मील का पत्थर है। 

कांग्रेस की  तिवारी सरकार ने समिति भंग कर दी। उसी दौरान टिहरी में बिजली उत्पादन शुरू हुआ। देहरादून से दिल्ली तक कांग्रेस का राज था। टिहरी की पहचान खत्म कर टीएचडीसी इंडिया बनाने की पटकथा उसी दौरान लिखी गई थी। क्या तब कांग्रेस को टीएचडीसी में उत्तराखंड को हिस्सा देने की जरूरत महसूस नहीं हुई?  जो भी हो कांग्रेस और भाजपा उत्तराखंड के भाग का मिनिरत्न गँवाने के दोष से मुक्त नहीं हो सकती हैं। बहरहाल इस पूरे खेल के खिलाड़ियों को हनुमंत राव कमेटी का मूल ड्राफ्ट पढ़ना चाहिए। जिसमें दर्ज है कि विस्थापितों ने सीबीआई जांच की मांग की है।


Please click to share News

Related Articles

Back to top button
error: Content is protected !!