परमहंस योगानंद जी का अवतार सदृश जीवन (132वीं जयन्ती पर विशेष) -अलकेश त्यागी

परमहंस योगानंद जी का अवतार सदृश जीवन (132वीं जयन्ती पर विशेष) -अलकेश त्यागी
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लेख:

गणित के समान सत्य “क्रियायोग” के शाश्वत विज्ञान को आमजन तक पहुंचाने के लिए महान आध्यात्मिक विभूतियों ने जिस बालक को चुना उसका नाम था मुकुंद घोष। जन्म से लेकर महासमाधि तक की घटी घटनाएं उनके अवतार सदृश जीवन की गवाह है।

               5 जनवरी 1893 को गोरखपुर में एक बंगाली दंपति के घर बालक मुकुंद घोष का जन्म कोई साधारण घटना नहीं थी। यदि साधारण होती तो जनवरी 1894 के कुंभ मेले में, उनके गुरु स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी से, जो उस समय स्वामी भी नहीं थे, अमर गुरु महावतार बाबाजी यह नहीं कहते कि “…कुछ वर्षों बाद मैं आपके पास एक शिष्य भेजूंगा जिसे आप पश्चिम में योग का ज्ञान प्रसारित करने के लिए प्रशिक्षित कर सकते हैं।…” और अंततः  स्वामी श्री युक्तेश्वरजी से, जुलाई 1915 में सन्यास  दीक्षा ले मुकुंद, योगानंद बन गए। इसके अलावा सितंबर 1893 में शिकागो में  स्वामी  विवेकानंदजी ने एक किशोर डिकेन्सन से कहा कि  “…नहीं बेटा, मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं। तुम्हारे गुरु बाद में आएंगे। वह तुम्हें चांदी का गिलास देंगे।” अंतत: 1936 में योगानंदजी से क्रिसमस उपहार पा डिकेन्सन ने स्वीकार किया कि आज, तैंतालीस साल पूर्व स्वामी विवेकानंद द्वारा दिया आश्वासन पूरा हुआ। कालान्तर में सच हुईं, दोनों ही घटनायें तब घटीं जब योगानंदजी क्रमशः मात्र एक वर्ष और 9 महीने के थे।

               ग्यारह वर्ष की आयु में मां को खोने के बाद मिला, मां का संदेश और कवच (ताबीज) भी उनके अवतारी होने को प्रमाणित करते हैं। शिशु योगानंद के लिए लाहिड़ी महाशय का कहना कि “छोटी मां तुम्हारा पुत्र एक योगी होगा। एक आध्यात्मिक इंजन बनकर यह अनेक आत्माओं को ईश्वर के साम्राज्य में ले जाएगा।” योगानंदजी के अवतारी जीवन का भौतिक प्रमाण वह घटना थी, जब प्रार्थना करती उनकी मां के जुड़े हाथों के बीच एक गोल विचित्र ताबीज प्रकट हुआ। इसमें संस्कृत के अक्षर खुदे थे। ताबीज के बारे में उनकी माँ को एक साधु ने बताया था कि गुरुजन उन्हें बताना चाहते हैं कि अगली बीमारी उनकी अंतिम बीमारी सिद्ध होगी। अमानत के रूप में रखने के लिए उन्हें एक चांदी का ताबीज दिया जाएगा जिसे मृत्यु की घड़ी में अपने बड़े बेटे को देकर एक वर्ष बाद दूसरे बेटे मुकुंद को सौंपने के लिए कहना। उस ताबीज के मर्म को मुकुंद समझ लेगा। कथन की सच्चाई को प्रमाणित करने के लिए साधु ने कहा कि मैं ताबीज नहीं दूंगा। कल प्रार्थना के समय वह स्वत: तुम्हारे हाथों में प्रकट होगा।और फिर वैसा ही हुआ। समय के साथ लाहिडि महाशय और साधू के कथन सही सिद्ध होना प्रमाण ही हैं।

               योगानंदजी ने 1917 में,योगदा सत्संग सोसाइटी yssofindia.org की नींव डाली। 1920 में उन्हें अमेरिका के बोस्टन में आयोजित धार्मिक उदारवादियों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने का निमंत्रण मिला।  योगानंदजी की, ईश्वर से आश्वासन की प्रार्थना पर , महावतार बाबाजी ने 25 जुलाई 1920 को दर्शन देकर कहा कि “अपने गुरु की आज्ञा का पालन करो और अमेरिका चले जाओ। डरो मत; तुम्हारा पूर्ण संरक्षण किया जाएगा।” तत्पश्चात उन्होंने क्रियायोग के प्रसार हेतु अमेरिका में 1925 में self-realization फैलोशिप की स्थापना की।

               और अंत में 7 मार्च 1952 को लॉस एंजिलिस में भारतीय राजदूत विनयरंजन सेन के सम्मान भाषण के बाद मंच पर खड़े-खड़े महासमाधि लेना और उनकी पार्थिव देह का निर्विकारता की अद्भुत अवस्था प्रदर्शित करना उनके अवतारी जीवन का अंतिम प्रमाण था।


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Garhninad Desk

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